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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई.
[ भाग 6
प्रष्टकोणीय बनाने के लिए उनके कोणों को कहीं अधिक और कहीं कम छील दिया गया है, और बरामदों की ढालसहित छतों की शैली तो काष्ठ-निर्मित छतों की शैली के इतने समान है कि इस मंदिर के मूल रूप में काष्ठ-निर्मित होने की संभावना त्यागी नहीं जा सकती . . . स्तंभों के मध्य संयोजित होने वाले फलक यहाँ पाषाण-निर्मित हैं जबकि भारत के किसी भी नगर में ये काष्ठ-निर्मित होते हैं . . . इन मंदिरों के बहिर्भाग जितने समतल हैं अंतर्भाग उतने ही अलंकृत हैं। उनके शिल्पांकनों की प्रचुरता
और विविधता इतनी अधिक है जितनी कहीं भी नहीं देखी जा सकती। कोई भी दो स्तंभ एक-समान नहीं मिल सकते और उनमें बहुत-से तो इस सीमा तक अलंकृत हैं कि वे विलक्षण ही लगते हैं।' त्रिभुवन-चूडामणि-बस्ती की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसके पीठ के चारों ओर उत्कीर्ण मूर्तियों की एक पट्टी बनायी गयी है जिसके विविध दृश्य कदाचित् जैन साहित्य से लिये गये हैं।
विशेष शैली में निर्मित मनोहर निषीधिकाओं का और एक समूह, साधनों की स्मृति में, मूडबिद्री के समीप स्थित है (चित्र २५१) । 'उनमें आकार और भव्यता का बड़ा अंतर है; किसी के तीन तल हैं, किसी के पाँच तो किसी के सात । किन्तु ये तल द्रविड़-मंदिरों के तलों के समान नहीं हैं, अर्थात यहाँ उनकी भाँति कटाच्छन्न गर्भगहों और स्तुपाकार छतों की संयोजना नहीं है। एक तल से दूसरा तल ढलवी छत द्वारा विभक्त होता है, जैसा कि काठमाण्डू के पगोडायों में और चीन या तिब्बत में होता है। भारत में ये बहुत विलक्षण लगते हैं। पहली विलक्षणता तो यही है कि साधुओं के स्मारक इस स्थान के अतिरिक्त कहीं भी नहीं पाये जाते; दूसरी विलक्षणता यह है कि इन वास्तु-कृतियों के अंगोपांग भारत के किसी भी भाग में स्थित किसी भी वास्तु-कृतियों के अंगोपांगों से सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं।2।।
मूडबिद्री से १५ किलोमीटर उत्तर में स्थित कार्कल में कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर हैं। यहाँ के उपग्राम हिरियंगडि में लगभग छह मंदिर हैं जिनमें एक तीर्थंकर-बस्ती है। इनमें से एक शांतिनाथ-बस्ती के विषय में एक अभिलेख में वृत्तांत है कि इसे बहुत-से व्यक्तियों ने दान किया, जिनमें कुछ कुलीन महिलाएं भी थीं। यह अभिलेख होयसल बल्लाल-तृतीय के शासनकाल में १३३४ ई० में उत्कीर्ण हुआ था। यहाँ की सबसे विशाल बस्ती के समक्ष स्थित मान-स्तंभ स्थापत्य-कला का एक उत्तम निदर्शन है। कार्कल में ही प्रसिद्ध चतुर्मुख-बस्ती (चित्र २५२ क) है; उसका निर्माण १५८६८७ ई० में हया था। इसके चारों द्वारों से श्याम पाषाण द्वारा निर्मित तीर्थंकर अरह, मल्लि और मुनिसुव्रत की उन मूर्तियों के समक्ष पहुँचा जा सकता है जो आकार और प्रकार में एक-समान हैं। इस मंदिर के स्तंभों की कला साधारण है और ढाल-सहित छदितट लंबे शिला-फलकों से बने हैं जो एक के-ऊपर-एक संयोजित हैं और जिनके ऊपर एक दोहरी पट्टी की संयोजना है। उल्लेखनीय है कि इस
1 फर्ग्युसन (जे) हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न मार्किटेक्चर, 2, 1910, पृ76-77, वुडकट्स 303-305%3B
ब्राउन, वही, पृ 156, चित्र 102 क, रेखाचित्र 1. 2 फर्ग्युसन, वही, पृ 79-80. 3 रमेश (के वी). हिस्ट्री ऑफ़ साउथ कनारा 970. धारवाड़. 298.
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