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मध्याय 25]
उत्तर भारत
दूसरा उल्लेखनीय मंदिर चित्तौड़ में सात-बीस-डयोढी (चित्र २२२) है जिसका रचनाकाल शैलीगत आधार पर १५ वीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है। यह मंदिर तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल, गढ़-मण्डप, नव-चौकी, अष्टाकार मण्डप तथा मुखमण्डप, ये छह भाग हैं। गढ़-मण्डप के पार्श्व में छोटे-छोटे देवालय भी हैं। सप्तरथ-प्रकार के शिखर के चारों ओर अंगों और कर्ण-शृंगों की तीन पंक्तियाँ भी संलग्न हैं ।
कुछ उल्लेखनीय जैन मंदिर जैसलमेर के दुर्ग में भी पाये गये हैं जो पार्श्वनाथ, आदिनाथ, शांतिनाथ, संभवनाथ और महावीर आदि के हैं। इन सभी मंदिरों की अपनी निजी विशेषताएं हैं। इन मंदिरों के विषय में ढाकी का यह मत उल्लेखनीय है कि रेगिस्तानी निर्जन क्षेत्र में लगभग एक शताब्दी तक इन मंदिरों का निर्माण मानो एक वंश-परंपरानुगत क्रम में हुआ है जैसे पिता के उपरांत पुत्र जन्म लेता है। इनकी विकास परंपरा निर्विघ्न रूप में स्थिर गति से बढ़ती रही है जिसे देखकर इसकी प्रगति अथवा अन्यथा स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इनमें सबसे प्राचीन मंदिर सन् १४१७ में निर्मित पार्श्वनाथ को समर्पित लक्ष्मण-विहार है । इस मंदिर में उत्कृष्ट तोरण, अलंकृत मुख-चतुष्की, रंग-मण्डप, त्रिक-मण्डप, गूढ़-मण्डप, मूल-प्रासाद तथा मूल-प्रासाद के चारों ओर बावन देवकुलिकाएं है जो जैन मंदिरों में सामान्य रूप से पायी जाती हैं। भवन, बड़े कक्ष (मूल-प्रासाद) के स्तंभ और छत के अलंकरणों में कुछ अवशिष्ट अलंकारिक विशेषताएं प्राचीन महा-मारु स्थापत्यीय शैली का स्मरण कराती हैं । सन् १४३१ में निर्मित संभवनाथ के मंदिर के रंग-मण्डप की छत अत्यंत दर्शनीय है, जिसके अलंकरण में तीन शताब्दी पूर्व की सुपरिचित अनेक विशेषताओं का उपयोग किया गया है। सन् १४५३ का निर्मित तीर्थंकर चंद्रप्रभ का मंदिर रणकपूर के प्रसिद्ध चतुर्मुख मंदिर का लघु संस्करण-सा प्रतीत होता है। इसकी छतें पूर्वोक्त दो मंदिरों की भाँति प्रचलित परंपराओं के विपरीत हैं । सन् १४८० के निर्मित शांतिनाथ-मंदिर की कुछ छतें और संवरण (घण्टे के आकार की छत) (चित्र २२३) अपनी जटिलता के कारण विशेष उल्लेखनीय हैं। इसी वर्ष निर्मित आदिनाथ-मंदिर पूर्वोक्त चारों मंदिर की भाँति उल्लेखनीय नहीं है। इसी काल के निर्मित जेसलमेर के शेष दो मंदिरों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है।
जैसलमेर के पार्श्वनाथ-मंदिर का उल्लेख दश-श्रावक-चरित (सन् १२१८) की प्रशस्ति में पाया जाना है। इस उल्लेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण किसी जगद्धर2 नामक व्यक्ति ने कराया था। इस मंदिर का प्रक्षिप्त भाग पूर्वोक्त तिथि से परवर्ती है। इन मंदिरों की सशक्त शैली को इन की विशेषता के रूप में परिलक्षित किया जा सकता है। इनमें पार्श्वनाथ का मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह मंदिर पत्र-पुष्पों, पशु-पक्षियों, मानव-प्राकृतियों तथा अलंकारिक कला-प्रतीकों के समृद्ध अंकन द्वारा अति-सुसज्जित है । छत, स्तंभ, टोडे, तोरणों की प्राकृतियाँ रीतिबद्ध होने पर भी आकर्षक हैं। इन मंदिरों में, विशेषकर शांतिनाथ-मंदिर में, गुंबदों और कंगूरों की उपस्थिति तथा
1 ढाकी (एम ए), पूर्वोक्त, पृ7. 2 जैन (कैलाशचन्द). जैनिजम इन राजस्थान, 1963. शोलापुर, पृ 126.
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