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________________ अध्याय 24] दक्षिणापथ और दक्षिण भारत की गयी थी। इससे जैन कला पर भी राष्ट्रकूट ब्राह्मण्य कला का शैलीगत प्रभाव प्रतीत होता है। तमिलनाडु की मूर्तिकला में आडंबरहीनता इतनी अधिक है कि उसमें कलागत अलंकरण नगण्य हैं, क्योंकि एक तो उनमें ग्रेनाइट पाषाण का प्रयोग हया है और उनमें यहाँ के अन्य केंद्रों की तुलना में कुछ अधिक ही कठोर परंपराएँ रही हैं। इतना सब होते हए भी, इनमें कुछ अभिप्रायों की संयोजना है जिनके शैलीगत विकास में एक विशेष उद्देश्य निहित है। ऐसा ही एक अभिप्राय त्रिच्छत्र है जो या तो एक ही पाषाण में इस तरह उत्कीर्ण किया जाता कि वे एक प्याले पर दूसरे और दूसरे पर तीसरे प्याले की भाँति ऊपर रखे दिखते हैं, या फिर उन्हें इस तरह प्रस्तुत किया जाता कि उनके किनारे थोड़े से उभरे हुए होते और उनपर सर्वत्र पुष्पावली अंकित होती । छत्रावली के आसपास के स्थान पर लताओं को अलंकरण के रूप में अंकित किया जाता जिनमें से कुछ शास्त्रविहित होते, कुछ शैलीगत होते और कुछ में कलिकाओं, पुष्पावली आदि की प्रस्तुति होती और यदा-कदा लताओं को कुण्डलाकृतियों और बंदनवारों के अंकनों से अत्यधिक अलंकृत कर दिया जाता। ग्रेनाइट के मूय॑कनों में भी मूर्ति-शिल्प की दो प्रवृत्तियाँ रहीं। उनमें से एक के अनुसार गुणों और प्रकृति-साम्य की अभिव्यक्ति को महत्त्व दिया गया और दूसरी के अनुसार शरीर के आयामों में कोणों पर बल दिया जाता; मस्तक और शरीर को चतुष्कोणीय रखा जाता और मूर्ति का समूचा रूप अपेक्षाकृत अाकर्षणहीन रह जाता । तथापि, प्रारंभिक मध्यकाल (दसवीं से तेरहवीं शताब्दी) की सभी मतियों में अत्यधिक सुगठित शरीर और संयत बलिष्ठता की अभिव्यक्ति हुई। मकर-तोरणों और चमरधारियों की संयोजना या तो की ही नहीं गयी या उन्हें बहुत कम महत्त्व दिया गया। दक्षिण कनारा आदि कुछ समुद्रतटीय स्थानों में जैन धर्म को निरंतर संरक्षण मिला । यहाँ मूर्तियों के पालिश और आकार को इतना अधिक महत्त्व दिया गया कि उनके अंगोपांगों का अनुपात भी गौण हो गया; इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकतर मूर्तियों में शरीर-भाग की अपेक्षा मस्तक-भाग छोटा हो गया, हस्त और पाद अत्यंत निर्बल और शिथिल बन गये और परंपरा से बनती आयी कण्ठ और नाभि की त्रिवलियाँ केवल गहराई तक उत्कीर्ण करके ही बना दी गयीं। तमिलनाडु के शक्करमल्लूर, बिल्लिवक्कम् (चित्र २१८ ख), व्यासर्पदि आदि में और हम्पी, पेडु तुम्बलम्, हलेबिड आदि में विभिन्न राजवंशों के कारण आयी क्षेत्रीय प्रवृत्तियाँ पृथक्-पृथक् दीख पड़ती हैं। तथापि, सांस्कृतिक मूल्य सर्वत्र एक-समान हैं । किन्तु दक्षिण के विजयनगर और नायक राजवंशों के काल के ग्रेनाइट पाषाण के शिल्पांकन अपनी उत्कृष्टता के कारण दक्षिणापथ के अत्यधिक सुंदर शिल्पांकनों की तुलना में बड़ी सीमा तक सफल होते हैं। पेडु तुम्बलम् से प्राप्त और अब मद्रास संग्रहालय में संग्रहीत अजितनाथ की एक मूर्ति अतिशय सुंदर और सौम्य बन पड़ी है और उसमें यदि कोई त्रुटि है भी तो वह अलंकृत प्रभावली के कारण छिप गयी है। इस मूर्ति से, अन्य अनेक मूर्तियों से भी अधिक, यह प्रकट होता है कि अपने शिल्पांकन को अधिकाधिक आकर्षक बनाने के लिए यादवकालीन कलाकार ने कल्याणी के चालक्यों. होयसलों और दक्षिणापथ की परंपरागत शैलियों को किस प्रकार समन्वित किया। तथापि, किसी पृथक् मंच की स्थापना किये बिना ही जैन कला निरंतर प्रगति करती रही और इसी कारण कला 335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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