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________________ अध्याय 24 ] दक्षिणापथ मौर दक्षिण भारत दक्षिणापथ के पूर्वी भाग अर्थात् आधुनिक आंध्र प्रदेश में जैन वास्तु-अवशेष अधिकतर रायलसीमा से तेलंगाना तक प्राप्त होते हैं, यद्यपि इनसे भी प्राचीन अवशेष और खण्डहर समुद्र-तट के क्षेत्रों में यत्र-तत्र विद्यमान हैं। इसका पहला कारण यह हो सकता है कि समुद्र-तट के क्षेत्रों में सुदृढ़ और व्यापक राजाश्रय पहले बौद्ध धर्म को और उसके बाद ब्राह्मण-हिन्दू धर्म को मिला, इस कारण उनके परंपारगत संपर्क इतने सुदृढ़ हो गये कि उसके रहते इस क्षेत्र में जैन धर्म का प्रवेश कठिन हो गया। यह प्रवेश श्रवणबेलगोला के केंद्र से प्रारंभ हुआ और वहाँ से उसका प्रसार एक अोर रायलसीमा से होकर समुद्र-तट और दूसरी ओर उड़ीसा से होकर समुद्र-तट के क्षेत्रों में हुआ, जैसा कि वासुपूज्य के समय की परंपरागत प्रचार-कथा से ज्ञात होता है; तात्पर्य यह कि ईसवी सन् के प्रारंभिक समय और राष्ट्रकूट-काल के बीच जैन धर्म को राज्य से पहली बार व्यापक आश्रय और समर्थन मिला । कल्याणी के चालूक्यों, काकतीयों और बेल्नाटी के चोलों के शासनकाल में कर्मकाण्ड और स्थापत्य संबंधी केंद्रों की प्रतिष्ठा अत्यधिक सबल और व्यापक हो गयी, किन्तु उस समय के अवशेष अधिकतर मूर्तियों के रूप में ही प्राप्त होते हैं । मुख्य-प्राप्ति स्थान हैं : हैदराबाद के समीप पोट्लाचेरुवु (आधुनिक पाटनचेरु), वर्धमानपुर (वड्डमनी), प्रगतुर, रायदुर्गम, चिप्पगिरि, हनुमकोण्डा, पेड्डतुम्बलम (अडोनी के समीप), पुडुर (गडवल के समीप), अडोनी, नयकल्ली, कंबदुर, अमरपुरम, कोल्लिपाक, मुनुगोडु, पेनुगोण्डा, नेमिम्, भोगपुरम आदि । इन स्थानों पर विद्यमान मंदिरों के प्रकार से या स्थापत्य संबंधी शिल्पांकनों से यह अत्यंत स्पष्ट है कि स्थापत्य संबंधी कुछ विशेष शैलियों ने इस निर्माण की धारा को प्रभावित किया, यद्यपि यह कहना उचित होगा कि इस निर्माण में ऐसी कोई विशेषता नहीं जिसे जैन शैली नाम दिया जा सके । इतना अवश्य हा कि किसी विशेष क्षेत्र या काल में निर्माण का विकास जैनों के द्वारा विशेष रूप से किया गया । निष्कर्ष रूप में हम एक से अधिक भिन्न शैलियों का नामोल्लेख कर सकते हैं : सोपानमार्ग और तल-पीठ सहित निर्माण की कदंब-नागर-शैली, जिसके अंतर्गत चारों पाश्वों पर एक समतल पट्टी होती है, और अधिकतर तीन गर्भालयों-सहित एक त्रिकूटाचल होता है और जिसके प्रत्येक गर्भालय पर एक शिखर होता है; और अन्य शैली के जो मंदिर बच रहे हैं उन सबमें छत पर शिखर के साथ अपने-आप में पूर्ण एक शुकनासी होती है जो अंतर्भाग में स्थित अर्धमण्डप के ठीक ऊपर पड़ती है । शिखर निश्चित रूप से चतुष्कोणीय होता है, जिसे दक्षिण में प्रचलित शब्दावली में नागर-वर्ग का शिखर कहा जा सकता है, और इस सबके आधार पर कहा जायेगा कि मंदिर के आकार में परिवर्तन का अर्थ है निर्माण-संबंधी विशिष्टता में विस्तार जो पश्चिमी कर्नाटक के समुद्रतटीय क्षेत्र में और अधिकतर कदंब-मण्डल में दृष्टिगत होता है; यह विस्तार जातीय और स्थानीय स्तर पर काष्ठ या पाषाण से निर्मित पारंपरिक मंदिरों की शैली में एक मिश्रण मात्र है और केवल विमान-शैली के मंदिरों के लिए प्रतिबद्ध क्षेत्र में ही सीमित रहा, और उत्तर के रेख-प्रासाद में उसे कोई उल्लेखनीय स्थान न मिल सका; केवल इसकी शुकनासी को वहाँ व्यापक रूप से अपनाया गया जो कल्याणी के चालूक्यों की अपनी विशेषता थी। इसके तल-पीठों वाले शिखर के साथ शकनासी भी होती है और 323 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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