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________________ अध्याय 24] दक्षिणापथ पौर दक्षिण भारत जिले में ही लक्ष्मेश्वर का शंख-जिनालय । लक्कुण्डी के ब्रह्म-जिनालय का इतिहास और अभिलेखों की दृष्टि से उसका महत्त्व पहले बताया जा चुका है। यह मंदिर (चित्र २०३ क) एक उत्तरकालीन होयसल मंदिर की भाँति स्तर-युक्त पाषाण से निर्मित है और स्थापत्य के विकास में राष्ट्रकूटों और प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्यों की कलाओं में कड़ी का काम करता है। उसकी विन्यास-रेखा में अनेक रथों की संयोजना है जिनमें से भद्र-रथ अब भी सुरक्षित है। वहाँ तक आते-आते अनुरथ वर्तुल और शंक्वाकार हो गये हैं, इससे संयोजना में एक स्निग्ध वर्तुलाकार की सृष्टि हुई है। स्पष्ट है कि होयसल स्थापत्य में तारक जगती का विकास इसी वर्तुलाकार से हुआ जो एक पूरी शताब्दी तक चलता रहा । उसकी भित्तियों पर प्रस्तुत देवकुलिकाओं में से मध्यवर्ती भद्र-प्रकार की है और उसमें त्रिकोण-तोरण की संयोजना है किन्तु भित्तियों के पार्श्व स्तंभाधारित हैं और उनके पंजरों पर ऊपर विमानों की लघु अनुकृतियाँ निर्मित हैं। मुख्य गर्भालय के शिखर का आकार और अंग-संयोजना राष्ट्रकूट-शिखर के समान है, उसकी परिधि ऊपर की ओर क्रमशः कम होती जाती है और मूल शिखर तक पहुँचते-पहुंचते चतुरस्र आकार ले लेती है। उस पर वहाँ शुकनासी की प्रस्तुति है जिसमें मूलतः एक लघु गर्भालय रहा होगा यद्यपि वह अब दीवार से बंद कर दिया गया है। इस मंदिर के रंग-मण्डप के बाहर काले पालिशदार पाषाण से बना शृंगारचौरी-मण्डप है जो उत्तरकालीन संवर्धन माना जाना चाहिए (चित्र २०३ ख) । तीन ओर से जुड़े हुए इन दोनों मण्डपों के मध्य की स्तंभ-पंक्ति सीमा-रेखा बनाती है। इस काल की शैली का एक विशेष उदाहरण ऐहोल का चारण्टी-मठ नामक मंदिर-समूह है। यह कम से कम १११६ ई० से पहले की है जो त्रिभुवनमल्लदेव विक्रमादित्य-षष्ठ के शासन का चौवालीसवाँ वर्ष था। वहां एक ऐसा अभिलेख है जो निश्चित रूप से किसी मंदिर के निर्माण के संबंध में उत्कीर्ण नहीं किया गया। उसमें वृत्तांत है कि अय्यवोल के पांच सौ स्वामियों के शेट्टी केशवय्य ने उक्त संवत् में जीर्णोद्वार और संवर्धन किये और स्थायी दान की व्यवस्था की। इस समूह के मुख्य मंदिर के पास का चारण्टी मठ कदाचित् ऐसा ही एक संवर्धन है। उसमें अर्ध-मण्डप, सभा-मण्डप और मुख-मण्डप हैं और उसका शिखर 'दक्षिणी' विमान-प्रकार का है। जैन स्थापत्य में विशेष रूप से प्रचलित उपरि-गर्भालय में एक मूल-गर्भालय और एक मुख-मण्डप है। बाह्यभित्तियों पर अभिप्रायों की सामान्य संयोजना के आधार पर यह मंदिर ग्यारहवीं शती का माना जा सकता है। पूर्व में स्थित यह एक आकर्षक मंदिर है। इसमें गर्भगृहों की दोहरी संयोजना है पर मुख-मण्डप एक ही है और भीतर की इनकी विभाजक भित्तियाँ परस्पर अलग-अलग हैं। द्वार-पक्ष पर भव्य अलंकरण-कला इस मंदिर की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है; मुख-मण्डप की बौछारियाँ और कपोतिकाएँ भी विशेष रूप से अलंकृत हैं और उनके कोणों पर जो कोडुंगइ-तोरणाकृतियाँ और तिर्यक् लता-वल्लरियाँ अंकित हैं वे और भी आकर्षक बन पड़ी हैं। मुख-मण्डप के दोनों सम्मुख-द्वारों के तोरणों पर चौबीसों तीर्थंकरों की दो पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। परिधि-भित्ति पर कपोतिका के ऊपर 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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