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________________ अध्याय 22 ] मध्य भारत प्रदान करती है । गर्भगृह का एक पंचशाखा द्वार-मार्ग है जिसका अलंकरण बेल-बूटों, गणों तथा मिथुनों द्वारा तो किया ही गया है, साथ ही द्वार-स्तंभों पर सेवकों सहित गंगा और यमुना की आकृतियाँ भी अंकित हैं। द्वार-मार्ग पर दो तोरण-सज्जाएँ हैं जिनमें से एक पर नौ ग्रहों के अतिरिक्त ललाट-बिंब के रूप में आसीन-मुद्रा में एक तीर्थंकर-प्रतिमा तथा सीमान्त पालों में से प्रत्येक में एक खड़ी हुई तीर्थंकरप्रतिमा अंकित है। ऊपर की तोरण-सज्जा के बालों में पाँच आसीन तीर्थंकर-प्रतिमाएँ हैं और छह तीर्थकर कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं। द्वार-मार्ग के प्रत्येक पार्श्व में किरीट-मुकुट पहने चार भुजाओंवाला जैन प्रतीहार अंकित है। दायीं ओर वाले प्रतीहार के दो अवशिष्ट हाथों में गदा और पद्म हैं और बायीं ओर वाले के हाथों में चक्र, शंख, कमल और गदा है । मंदारक पर एक विद्यादेवी-युगल भी उत्कीर्ण है। गर्भगृह में काले संगमरमर की बनी पार्श्वनाथ की एक आधुनिक प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठापना सन् १८६० में उसी प्राचीन और ललित आधार-वेदी पर की गयी थी जिसका निर्माण पाण्ड बलुआ दि उसी प्रकार की सामग्री से हुआ था जिससे मंदिर और उसकी मूर्तियाँ निर्मित हैं। यह वेदी अपने परिकर और प्रभावली सहित पूरी की पूरी सुरक्षित है और यह संकेत देती है कि मूल प्रतिमा एक चतुर्विशति-पट्ट थी जिसके मूलनायक आदिनाथ थे, जैसा कि उसके समुचित स्थान पर उत्कीर्ण वृषभ-लांछन (चिह्न) से स्पष्ट है । इस मंदिर के पिछले देवालय, जो इसका पश्चिमी प्रक्षेप है, का मुख पश्चिम की ओर है और उसमें जंघा की मूर्ति-संबंधी वही संयोजना तथा वही वेदी-बंध की सज्जा-पट्टियाँ बाहर की ओर हैं। अंतर केवल इतना ही है कि दोनों चित्र-पट्टिकाओं की ऊँचाई कम है। इस देवालय का केवल गर्भगृह ही बचा है जिसमें प्रवेश के लिए पंचशाखा द्वार-मार्ग था, जिसका अलंकरण द्वार-स्तंभों पर सेवकों सहित गंगा और यमुना की आकृतियों के अतिरिक्त बेल-बूटों, गणों तथा मिथुनों द्वारा किया गया था (चित्र १७०)। उसके सरदल पर नौ ग्रहों के अतिरिक्त तीन पाले हैं जिनमें से प्रत्येक में चतर्भजी सरस्वती की आसनस्थ प्रतिमा है। केंद्रीय और बायीं ओर की आकृति का एक हाथ वरद-मुद्रा में है और अन्य हाथों में कमलनाल, पुस्तक और जलकुंभ हैं। दाहिनी आकृति के ऊपरी दो हाथों में कमलनाल और पुस्तक हैं तथा निचले दो हाथों में वीणा है; पार्श्व के दो चतुर्भुजी जैन प्रतीहारों में से दाहिने का सिर और हाथ नष्ट हो गये हैं; बायें प्रतीहार के दो अवशिष्ट बायें हाथों में पुस्तक और गदा है तथा वह किरीट-मुकुट पहने हुए है। बाह्य भद्र-पालों में, जंघा की दो प्रमुख पंक्तियों में, तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ या अधिकतर जैन देवियों (यक्षियों या विद्यादेवियों) की मूर्तियां, तीसरी पंक्ति में नृत्य-चित्रावली और सबसे ऊपर की पंक्ति में चतुर्भुजी आसनस्थ कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष की लघु मूर्तियाँ अंकित थीं। मण्डप के दक्षिणी अग्रभाग के मुख पर दो मुख्य भद्र-पालों में से प्रत्येक में चतुर्भुजी देवी की ललित त्रिभंग-मुद्रा में खड़ी मूर्ति है, जिसके आसपास पारंपरिक सेवक-वर्ग, भक्त तथा आकाशगामी विद्याधर अंकित हैं। इसके साथ ही स्तंभ के प्रत्येक कोने में खड़गासन-मुद्रा में तीर्थंकरों की चार मूर्तियाँ भी प्रदर्शित हैं। 289 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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