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________________ अध्याय 21] पूर्व भारत की अभिकल्पना को अपनाया गया है। ये दोनों मंदिर पूर्व-मध्यकालीन के हैं, जिनमें से एक मंदिर ईंटनिर्मित और विशालाकार है, जो पहाड़पुर (जिला राजशाही, बांग्ला देश) स्थित बौद्ध मठ के मध्यवर्ती भाग में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यहाँ पर सोमपुरा नामक एक महान बौद्ध बिहार था जिसका निर्माण पालवंशीय द्वितीय-शासक धर्मपाल ने लगभग आठवीं शताब्दी के अंत या नौवी शताब्दी के प्रारंभ में कराया था जैसा कि गुप्त संवत् १५९ (सन् ४७८-७९ ई०) के एक ताम्रपत्र-अनुदान से ज्ञात होता है, इससे पूर्ववर्ती काल में यहां पर या इसके निकटवर्ती क्षेत्र में एक जैन बस्ती थी। ईट-निर्मित इस विशालाकार बौद्ध मंदिर में अनेक असामान्य विशेषताएँ रही हैं जिनकी चर्चा यहां आवश्यक है। इस बौद्ध मंदिर में इसका रूप और आकार उल्लेखनीय है । इस लेखक ने अन्यत्र उल्लेख किया है कि यह मंदिर इस विशाल स्मारक के दूसरे तल के मण्डप में स्थित था। मंदिर के मध्य में एक वर्गाकार स्तंभ था जिसकी प्रत्येक सतह के समक्ष आगे की ओर प्रक्षिप्त कक्ष थे। इस सारी संरचना के चारों ओर एक प्रदिक्षणा-पथ था (रेखाचित्र २१) इस संरचना से यह भली-भाँति अनुमान किया जा सकता है कि स्तंभ की चारों सतहों से सटी हुई एक-एक प्रतिमा रही होगी। इस प्रकार इस मंदिर में जैन सर्वतोभद्रिका का उपयोग देखा जा सकता है। हमारे इस सुझाव का समर्थन बुद्ध-प्रतिमा के पादपीठ के वे अवशिष्ट भाग करते हैं जो कुछ कक्षों में स्तंभ से जुड़े हुए हैं । स्तंभ की सतहों से इस मंदिर के प्रश्न का समाधान बर्मा के पूर्वोक्त मंदिर कर देते हैं जिनके विषय में किसी प्रकार का संदेह नही है । पगान के इन मंदिरों की समानता के आधार पर यह संभावना की जा सकती है कि इस भव्य मंदिर की छत कई सतहवाली मंचाकार ही रही होगी, तथा उस पर वक्राकार शिखर रहा होगा, जो प्रतिमावाले वर्गाकार स्तंभ पर आघृत रहा होगा। यह स्तंभ ऊपरी तलों के मण्डपों को पार करता हा छत तक पाया होगा। इसी प्रकार के एक दूसरे बौद्ध मंदिर के भग्नावशेष मैनामती पहाड़ियों (जिला कुमिल्ला, बांग्ला देश) में स्थित सालवन-बिहार में पाये गये हैं। सालवन-बिहार को पूर्व बंगाल के देववंशीय चतुर्थ-शासक बौद्ध धर्मानुयायी भावदेव के विहार के रूप में पहचाना जा सकता है। इस चतुष्कोणीय बौद्ध विहार के मध्यवर्ती भाग में पाये गये इस मंदिर के अवशेषों से ज्ञात होता है कि इनमें पहाड़पुर मंदिर के दूसरे तल की विन्यास-रूपरेखा को ही अपनाया गया है। इस मंदिर के मध्यवर्ती भाग में ईट-निर्मित वर्गाकार स्तंभ था जिसकी चारों सतहों पर प्रक्षिप्त चार कक्ष थे। चारों कक्षों में स्तंभ से सटी हुई प्रतिमाएँ थीं। इनमें से एक कक्ष में कांस्य निर्मित बुद्ध की प्रतिमा का एक अवशेष भी पाया गया है, जो पहाड़पुर-मंदिर के विषय में व्यक्त की गयी इस संभावना का भी समर्थन करता है कि वर्गाकार स्तंभ की चारों सतहों पर प्रतिमाएँ थीं। ये दोनों ही मंदिर अत्यंत खण्डित अवस्था में हैं। लेकिन इन मंदिरों की रचना का विवरण पूर्वोक्त पगान मंदिरों से उल्लेखनीय साम्य दर्शाता है। इन मंदिरों की वेदियों से प्रतीत होता है कि इनका आदर्श जैनों की सर्वतोभद्रिका-प्रतिमा रही है। 1. सरस्वती (एस के). स्ट्रगल फॉर एम्पायर, संपा : मजुमदार (मार सी) एवं पुसालकर (ए डी). 1957. बंबई. पृ 637-38. 273 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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