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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5 से अवगत कराता है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरवर्ती शताब्दियों में यहाँ पर बौद्ध धर्म के तांत्रिक संप्रदाय तथा पौराणिक ब्राह्मणत्व की प्रधानता के कारण जैन धर्म की स्थिति दुर्बल होती गयी।
उपरोक्त परिस्थितियों में जैन कला की चर्चा के अंतर्गत विवेच्य कालखण्ड की जैन प्रतिमाओं का विवेचन किया जा सकता है ।
बंगाल और बिहार
. लगभग पाठवीं शताब्दी के मध्य में पाल वंश के उत्थान के साथ बंगाल और बिहार कुछ समय के लिए परस्पर एक विशेष राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृ वातावरण में प्रावद्ध हो एकरूप हो गये। धर्मपाल और देवपाल के शासनकाल (लगभग नौवीं शताब्दी के प्रारंभ) में यहाँ पर मूर्तिकला की एक सशक्त शैली ने विकास पाया जिसके अंतर्गत प्रचुर मात्रा में मूर्ति-शिल्पों की सर्जना हुई। इस शैली ने गुप्त-काल की कला के श्रेष्ठ गुणों को अपना आधार बनाया और उन्हें पूर्वक्षेत्रीय अनुरूपता के अनुसार रूपांतरित कर एक नया रूप प्रदान किया। इस शैली को सामान्यतः पूर्वीय या पाल-शैली के नाम से अभिहित किया जाता हैं। बंगाल और बिहार से प्राप्त बौद्ध, हिन्दू और जैन प्रतिमाएँ इसी शैली की हैं । इनमें की एक धर्म की प्रतिमाओं को दूसरे धर्म की प्रतिमाओं से मात्र उन धर्मों के देवी-देवताओं के आधार पर ही पृथक् पहचाना जा सकता है।
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है भारत के किसी भी काल की कला में जैन कला की चर्चा का तात्पर्य प्रधानत: जैन प्रतिमाओं के अध्ययन से है। यह अध्ययन अधिक जटिल नहीं है क्योंकि जैन प्रतिमाएँ एवं उनके अवशेष हमें उपलब्ध हैं। जैन प्रतिमाओं में अधिकांश संख्या तीर्थंकरों को है। इनके अतिरिक्त कुछ यक्ष और यक्षी-प्रतिमाएँ भी हैं। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की विशेष यक्षी अंबिका की भी कुछ स्वतंत्र प्रतिमाएँ प्राप्त हैं जो संख्या में गिनी-चुनी ही हैं । वस्तुतः कई तीर्थकरों की प्रतिमाएँ अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा अधिक संख्या में पायी गयी हैं किन्तु किन्हीं-किन्हीं तीर्थकरों की एक भी प्रतिमा उपलब्ध नहीं हुई है।
तीर्थंकरों को प्राय: खड़े हुए--कायोत्सर्ग,या बैठे हुए पद्मासन--इन दो ही मुद्राओं में दर्शाया गया है। इन दोनों मुद्रात्रों में तीर्थंकरों की देह-यष्टि सीधी तनी हुई भंगिमा में अंकित है। कायोत्सर्ग-मुद्रा में उनकी भुजाएँ धड़ के साथ प्रलंबित हैं और हाथ की अँगुलियाँ दोनों ओर जंघाओं को छू रही हैं। पद्मासन में पालथी मारे दोनों पाँवों के तलवे एक-दूसरे पर हैं और उनपर हाथ की हथेलियाँ एक दूसरे पर रखी हुई ऊपर की ओर हैं। तीर्थंकरों की पहचान और एक दूसरे से पार्थक्य उनके लांछनों या चिह्नों से होता है। ये लांछन प्रत्येक तीर्थंकर के लिए पृथक-पृथक निर्धारित किये गये हैं। एक स्थान पर दो तीर्थंकरों के लिए परस्पर में कुछ मिलते-जुलते लांछन भी निर्धारित
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