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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
लघु मूर्ति जैसा अंकन जैन मूर्तिकला में दुर्लभ ही है। इस चौखटे का ऊपरी भाग पारंपरिक बेल-बूटों के रूप में है।
जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों की कला, लगभग सारे उत्तर भारत में मूर्तिकला के पूर्ण विकसित चरण का द्योतक है। इस युग में अधिकांशतः प्राकृति-निर्माण परंपराओं तथा अलंकारपूर्ण प्राकारवाद से बँधा है। यह रूपांकन सामान्यतः मुद्राओं तथा शरीर के घुमाव के अनुकूल किया गया था, चेहरे की अभिव्यक्ति के अनुसार नहीं। चेहरे चौकोर से हैं तथा उनपर विशेष रूप से आँखों, भौहों, नाक आदि का प्रौपचारिक उत्कीर्णन हुआ है, गाल सूजे हुए प्रतीत होते हैं तथा मह फूला हुआ। अधिकांश मतियों में शरीर के अंगों में कोणीयता तथा मद्राओं में एक प्रकार के तनाव की भावना देखी जा सकती है। तीर्थंकरों की मूर्तियों को छोड़कर अन्य मूर्तियों में सुंदरता लाने का प्रयत्न रत्नाभूषणों तथा अन्य गहनों द्वारा किया गया है। तीर्थंकरों की प्राकृतियों में, जिन्हें गरिमापूर्ण पवित्र मुद्रा में प्रदर्शित करना आवश्यक था, विस्तृत अलंकरण परिकर के निर्माण में किया गया (चित्र १५१); विशेष रूप से आसीन तीर्थंकरों के साथ आकर्षक मुद्राओं में अनेक कलापूर्ण एवं सुंदर प्राकृतियां बनायी गयीं, जिनमें विद्याधरों, गंधर्वो, वादकों, इतर देवों तथा भक्तों की प्राकृतियाँ सम्मिलित हैं। अलंकृत भामण्डल, त्रिछत्र तथा स्वर्ग के हाथियों का भी अंकन किया गया। जो भी हो, यह मूल रूप से पूर्ववती जैन परंपरा के अनुकूल ही था जैसा कि मानतुंगाचार्यकृत भक्तामर-स्तोत्र के निम्न श्लोकों से स्पष्ट है :
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातं । बिवं वियद्विलसदंशुलतावितानं. तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मः ॥२६।। कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकांतं । उद्यच्छशांकशुचिनिझरवारिधार-- . मुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांतमुच्चैःस्थितं स्थगितभानुकरप्रतापं । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वं ॥३१॥ गंभीरताररवपूरितदिग्विभागस्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराजजयघोषणघोषक: सन्, खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशस: प्रवादी ॥३२।।
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