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________________ अध्याय 4 ] जैन कला का उद्गम और उसकी श्रात्मा मंदिर स्थापत्य कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति पूजा के परिणामस्वरूप हुआ जो जैनों में कम से कम इतिहास- काल के आरंभ से प्रचलित रही | बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख है कि वज्जि देश और वैशाली में अर्हत-चैत्यों का अस्तित्व था जो बुद्ध-पूर्व अर्थात् महावीर पूर्व काल से विद्यमान थे, (तुलनीय : महा परिनिव्वान - सुत्तन्त ) । चौथी शती ईसा पूर्व से हमें जैन मूर्तियों, गुफा मंदिरों और निर्मित देवालयों या मंदिरों के अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलने लगते हैं । अपने मंदिरों के निर्माण में जैनों ने विभिन्न क्षेत्रों और कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु उन्होंने अपनी स्वयं की संस्कृति और सिद्धांतों की दृष्टि से कुछ लाक्षणिक विशेषताओं को भी प्रस्तुत किया जिनके कारण जैनकला को एक अलग ही स्वरूप मिल गया । कुछ स्थानों पर उन्होंने समूचे 'मंदिर - नगर' ही खड़े कर दिये । मानवीय मूर्तियों के अतिरिक्त, आलंकारिक मूर्तियों के निर्माण में भी जैनों ने अपनी ही शैली अपनायी, और स्थापत्य के क्षेत्र में अपनी विशेष रुचि के अनुरूप स्तंभाधारित भवनों के निर्माण में उच्च कोटि का कौशल प्रदर्शित किया । इनमें से कुछ कला समृद्ध भवनों की विख्यात कला-मर्मज्ञों ने प्राचीन और आरंभिक मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य की सुन्दरतम कृतियों में गणना की है । बहुत बार, उत्कीर्ण और तक्षित कलाकृतियों में मानव-तत्त्व इतना उभर आया है कि विशाल, निग्रंथ दिगंबर जैन मूर्तियों में जो कठोर संयम साकार हो उठा लगता है उसका प्रत्यावर्तन हो गया । कलाकृतियों की अधिकता और विविधता के कारण उत्तरकालीन जैन कला ने इस धर्म की भावात्मकता को अभिव्यक्त किया है । जैन मंदिरों और वसदियों के सामने, विशेषतः दक्षिण भारत में, स्वतंत्र खड़े स्तंभ जैनों का एक अन्य योगदान हैं। मानस्तंभ कहलानेवाला यह स्तंभ उस स्तंभ का प्रतीक है जो तीर्थंकर के समवसरण ( सभागार ) के प्रवेशद्वारों के भीतर स्थित कहा जाता है । स्वयं जिन-मंदिर समवसरण का प्रतीक है । जैन स्थापत्यकला के ग्राद्य रूपों में स्तूप एक रूप है, इसका प्रमाण मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त हुआ है । वहाँ एक ऐसा स्तूप था जिसके विषय में ईसवी सन् के आरंभ तक यह मान्यता थी कि उसका निर्माण सातवें तीर्थंकर के समय में 'देवों' द्वारा हुआ था और पुनर्निर्माण तेईसवें तीर्थंकर के समय में किया गया था । यह स्तूप कदाचित् मध्यकाल के प्रारंभ तक विद्यमान रहा । किन्तु, गुप्त काल की समाप्ति के समय तक जैनों की रुचि स्तूप के निर्माण में नहीं रह गयी थी । एक बात और, जैसा कि लांगहर्स्ट का कहना है, 'स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव का यथोचित महत्त्व समझते हुए हिन्दुओं की अपेक्षा जैनों ने अपने मंदिरों के निर्माण के लिए सदैव प्राकृतिक Jain Education International 41 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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