________________
प्रास्ताविक
[ भाग 1
भी कहा जाता है कि जिनसेन, अमोघवर्ष ( सन् ८१४ -७८ ) के गुरु थे । उसके उत्तराधिकारियों कृष्णद्वितीय (सन् ८७८-९१४), इंद्र तृतीय ( लगभग सन् ६१४ - २२) तथा इंद्र- चतुर्थ ( लगभग सन् ६७३-८२) ने जैन धर्म को अपना प्रश्रय दिया तथा जैन मंदिरों के लिए अनुदान दिये थे । यह भी प्रतीत होता है कि राष्ट्रकूटों के सामंत, यथा सौंदत्ति के रट्ट, भी जैन धर्म के प्रश्रयदाता थे । एलोरा की जैन गुफाएँ, जिनके निर्माण का समय राष्ट्रकूट-काल निर्धारित किया जा सकता है, दक्षिणापथ में जैन धर्म की संपन्न स्थिति के साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं ।
आगे चलकर जैन धर्म को कल्याणी के चालुक्यों (सन् १७३ - १२००), देवगिरि के यादवों (सन् ११८७-१३१८) तथा शिलाहारों ( सन् ८ १०-१२६० ) के शासनकालों में और अधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ प्रतीत होता है । इस तथ्य का समर्थन महाराष्ट्र के दक्षिणवर्ती जिलों तथा कर्नाटक के विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक अभिलेखों से होता है । कल्याणी के चालुक्यों के बीस से अधिक अभिलेख उपलब्ध जो दसवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के हैं और अधिकांशतः बेलगाँव, धारवाड़ और बीजापुर जिलों में पाये गये हैं । ये अभिलेख इस क्षेत्र में जैन धर्म के अस्तित्व का साक्ष् प्रस्तुत करने के अतिरिक्त कुछ अन्य रोचक विवरण भी प्रस्तुत करते हैं । उदाहरण के लिए, ये अभिलेख सिद्ध करते हैं कि इस क्षेत्र में दिगंबर जैन धर्म का उत्कर्ष था; केवल शासकवर्ग ही नहीं, श्रपितु जनसाधारण भी जैन धर्म के प्रति उदार थे; और विभिन्न संस्थानों को दिये गये विपुल भूमिअनुदानों ने मठपतियों की परंपरा को जन्म देने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी ।
कलचुरियों के शासनकाल में ( ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक ), विशेषकर बिज्जल (सन् ११५६-११६८) के समय में, जैन धर्म को दुर्दिनों का सामना करना पड़ा । तथापि कतिपय शिलालेखों से ज्ञात होता है कि शैवों द्वारा किये गये उत्पीड़न के होते हुए भी जैन धर्म किसी प्रकार अपने को जीवित बनाये रख सका और यादवों के शासनकाल ( सन् १९८७ - १३१८ ) में अपने अस्तित्व की समुचित रक्षा सफल रहा। कोल्हापुर से प्राप्त कुछ शिलालेखों से ज्ञात होता है कि जैन धर्म की ऐसी ही स्थिति शिलाहारों के शासनकाल में भी रही ।
जैन आचार्यों को दिये गये दानों का उल्लेख करनेवाले कतिपय राज्यादेशों से यह प्रमाणित होता है कि पूर्वी चालुक्यों (सन् ६२४ - १२७१ ) के राज्य में जैन धर्म प्रचलित था । वेंकटरमनय्या का कथन है कि जैन साधु अत्यंत सक्रिय थे । देश भर की ध्वस्त बस्तियों में प्राप्त परित्यक्त प्रतिमाएँ सूचित करती हैं कि वहाँ कभी अनगिनत जैन संस्थान रहे थे । पूर्वी चालुक्य राजाओं और उनके प्रजाजनों के अनेक अभिलेखों में बसदियों एवं मंदिरों के निर्माण कराये जाने तथा उनके परिपालन के लिए भूमि एवं धन-दान के विवरण प्राप्त हैं । 2
1 देव पूर्वोक्त, पृ 121-22.
2 वैंकटरमनय्या (एन). ईर्स्टन चालुक्याज ऑफ बेंगी. 1950. मद्रास. पृ 288-89.
Jain Education International
34
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org