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________________ अध्याय 2 ] पृष्ठभूमि और परंपरा हैं तथा उनसे एक ऐसे राजा का परिचय मिलता है जो त्याग (वैराग्य) का जीवंत उदाहरण था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के संबंध में परंपराओं पर विचार करते हुए डॉ० हीरालाल जैन वैदिक और पौराणिक दोनों संदर्भो का उल्लेख करते हैं। वैदिक परंपरा का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल (२-३) में मिलता है जिसमें वातरशन मुनियों को मलिन (पिशंग) वस्त्र पहने हुए बताया गया है या फिर उनका शरीर धूलि-धूसरित होने से लगता था कि मानो उनका रंग ही पीला (पिशंग)था] । इन मुनियों के विषय में आगे कहा गया है कि वे उन्मादित मनःस्थिति में रहते थे और मौन का अभ्यास करते थे। आगे की ऋचा में उन मुनियों को केशी (जटाजूटवाले) कहा गया है। वातरशन या केशी मुनियों के इस विवरण से, डॉ० हीरालाल जैन के अनुसार, साधुओं के एक ऐसे वर्ग का संकेत मिलता है जिनमें ऋषभनाथ कदाचित् सर्वाधिक महान् थे। वेद और भागवत पुराण में वर्णित इन मुनियों का विवरण जैन मुनिचर्या की विशिष्ट प्रकृति और प्राचीनता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। भारतीय रहस्यवाद के विकास की रूपरेखा देते हुए प्रार० डी० रानाडे ने भागवत पुराण स्कंद ५ श्लोक ५-६ से एक अन्य प्रकार के योगी का मनोरंजक प्रसंग उद्धृत किया है जिसकी परम विदेहता ही उसकी आत्मानुभूति का स्पष्टतम प्रमाण था। उद्धरण यह है : 'हम पढ़ते हैं कि. अपने पुत्र भरत को पृथ्वी का राज्य सौंपकर किस प्रकार उन्होंने संसार से निलिप्त और एकांत जीवन बिताने का निश्चय किया; कैसे उन्होंने एक अंधे, बहरे या गूंगे मनुष्य का जीवन बिताना प्रारंभ किया; किस प्रकार वे नगरों और ग्रामों में, खानों और उद्यानों में, वनों और पर्वतों में समान मनोभाव से रहने लगे; किस प्रकार उन्होंने उन लोगों से घोर अपमानित होकर भी मन में विकार न आने दिया जिन्होंने उनपर पत्थर और गोबर फेंका या उनपर मूत्र-त्याग किया या उन्हें सभी प्रकार से तिरस्कार का पात्र बनाया; यह सब होते हुए भी किस प्रकार उनका दीप्त मुखमण्डल और पुष्टसुगठित शरीर, उनके सबल हस्त और मुसकराते होंठ राजकीय अन्तःपुर की महिलाओं को आकृष्ट करते थे; वे अपने शरीर से किस सीमा तक निर्मोह थे कि वे उसी स्थान पर मलत्याग कर देते जहाँ वे भोजन करते, तथापि, उनका मल कितना सुगंधित था कि उसके दस मील आसपास का क्षेत्र उससे सुवासित हो उठता ; कितना अटल अधिकार था उनका उपनिषदों में वर्णित सुख की सभी अवस्थाओं पर; कैसे उन्होंने अंततोगत्वा संकल्प किया शरीर पर विजय पाने का; जब उन्होंने भौतिक शरीर में अपने सूक्ष्म शरीर को विलीन करने का निश्चय किया उस समय वे कर्नाटक तथा अन्य प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे; वहाँ दिगंबर, एकाकी और उन्मत्तवत् भ्रमण करते समय वे बाँस के झुरमुट से 1 जैन, पूर्वोक्त, पृ 13-17. 2 रानाडे (पार डी). इण्डियन मिस्टिसिज्म : मिस्टिसिज्म इन महाराष्ट्र. 1933. पूना. पृ 9. 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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