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अध्याय 2
पृष्ठभूमि और परंपरा
जैनधर्म की गणना भारत के प्राचीनतम धर्मों में है। जैन परंपरा के अनुसार यह धर्म शाश्वत है और चौबीस तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने युग में प्रतिपादित होता रहा है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ थे और चौबीसवें अर्थात् अंतिम थे, वर्धमान महावीर । उनके नाम, वर्ण, चिह्न (लांछन), अनुचर, यक्ष एवं यक्षियाँ और जन्म तथा निर्वाण के स्थान यथाक्रम अनलिखित हैं :2
१. ऋषभनाथ या आदिनाथ; स्वर्णिम, वृषभ, गोमुख, चक्रेश्वरी, विनीतनगर, (दिगंबर) कैलास या (श्वेतांवर) अष्टापद ।
२. अजितनाथ; स्वर्णिम, गज, महायक्ष, (दि०) रोहिणी या (श्वे०) अजितबला, अयोध्या, सम्मेदशिखर।
३. संभवनाथ; स्वर्णिम, अश्व, त्रिमुख, (दि०) प्रज्ञप्ति या (श्वे०) दुरितारि, श्रावस्ती, सम्मेदशिखर ।
४. अभिनन्दननाथ, स्वर्णिम, वानर, (दि०) यक्षेश्वर या (श्वे०) यक्षनायक, (दि०); वज्रशृंखला या (श्वे०) कालिका, अयोध्या, सम्मेदशिखर ।
साना ह.
1 प्रत्येक तीर्थकर के अंतराल की जैन परंपरानुसार जो अवधि निर्दिष्ट है वह प्रायः अविश्वसनीय लगती
है, विशेष रूप से तब जब कोई पल्य और सागर के मापदण्डों पर विचार करे. यह सब लिखने का उद्देश्य इस धर्म की नितान्त प्राचीनता की ओर ध्यान दिलाना है. जैसा कि इस तालिका से प्रकट होगा, ये विविध प्रतीक अधिकतर प्राणिवर्ग और वनस्पति-जगत् से लिये गये हैं. परंपरानुसार मांगलिक महत्त्व के स्वस्तिक, श्रीवत्स और नन्द्यावर्त भी नितान्त प्राचीन हैं. वज एकमात्र ऐसी वस्तु है जो इन्द्र के साथ निकटता से संबद्ध होने के साथ-साथ युद्ध के उपयोग में आनेवाला एक अस्त्र भी है. इन प्रतीकों से सर्वात्मवाद की मान्यता का, और इनमें चुने गये प्राणियों और वनस्पतियों की विशेषताओं को रेखांकित करने का संकेत मिलता प्रतीत होता है. इनमें से ये कुछ प्रतीक हड़प्पा की मुद्राओं पर भी अंकित हैं, पर इतनी-सी समानता से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। जन्म के स्थानों में से, अबतक हो सकी उसकी पहचान के अनुसार, सबसे पश्चिम में मथुरा है, और सबसे पूर्व में चम्पा । ऐसा कोई स्थान नहीं जो निश्चित रूप से मध्य भारत में, दक्षिणापथ में या दक्षिण भारत में स्थित हो । निर्वाण का स्थान अधिकतर सम्मेदशिखर (हजारीबाग जिले में पारसनाथ पहाड़ी) है, नेमिनाथ का निर्वाण काठियावाड़ के गिरिनगर में हुआ, क्योंकि वे उस यादव राजवंश के थे जो मथुरा से पश्चिम भारत तक फैला हुआ था.
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