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________________ अध्याय 1 ] संपादक का अभिमत के परिणामस्वरूप इस ग्रंथ की रूप-रेखा तैयार हुई। इस ग्रंथ के अध्यायों को लिखने के लिए सक्षम विद्वानों से निवेदन किया गया और एक निश्चित समय भी निर्धारित कर दिया गया । इस प्रकार के सहकारी प्रयत्न के साथ जैसा साधारणतः होता है, कुछ विद्वानों ने कुछ भी लिखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, बहुतों ने अपने लेख समय पर भेज दिये और कुछ ने अंतिम क्षणों में । कुछ अध्याय, जो बहुत देर से प्राप्त हुए थे, संक्षिप्त और अपूर्ण पाये गये, और जब इस तथ्य की ओर संबंधित विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया तो उन्होंने कमी पूरी करने के लिए और समय माँगा । उन्हें समय देने का तात्पर्य था, प्रकाशन में अनिश्चित विलम्ब और मेरा इसी ग्रंथ से अनिश्चित काल तक संबद्ध रहना । चित्रात्मक सामग्री के साथ भी यही बात हुई । इस संबंध में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समृद्ध चित्र-स्रोतों और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा संग्रह किये जा रहे जैन पुरावशेषों के चित्रों के विशाल संग्रह ने कमी पूरी की। तो भी, कुछ कमी अब भी है । इन सब बातों से इस ग्रंथ के गुण और दोष स्पष्ट हो सकेंगे । किन्तु इनका निर्णय पाठक स्वयं ही करेंगे । ग्रंथ के जो अंश आलोच्य हैं उनका तीव्र भान मेरे सिवा अन्य किसी व्यक्ति को नहीं हो सकता क्योंकि मुझे तो इसके एक-एक अध्याय को अनेक स्थितियों में पढ़ना पड़ा तथा चित्रों को सजाना-सँवारना पड़ा है । जब इस ग्रंथ की सामग्री संग्रहीत करने का काम कुछ आगे बढ़ा, तब फरवरी १६७३ में मुझे एकवर्षीय अनुबंध पर इण्डोनेशिया जाना पड़ा। भारतीय ज्ञानपीठ के साथ न्याय करने की दृष्टि से मैंने सम्पादकीय कार्य से बिना शर्त त्यागपत्र दे दिया ताकि मेरी अनुपस्थिति से ग्रंथ की प्रगति में बाधा न पड़े और भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री को मैंने यह स्पष्ट सलाह दी कि वे यह कार्य किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को सौंप दें जो इसे अच्छी तरह कर सके । किन्तु जब गतवर्ष फरवरी में मैं भारत लौटा तब मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ग्रंथ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है । भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों द्वारा मुझमें व्यक्त विश्वास ने मुझे प्रभावित किया और मैं टूटी श्रृंखला को तत्परता से जोड़ने में लग गया। ऐसा नहीं था कि मेरी अनुपस्थिति में कोई प्रगति न हुई हो । कुछ और अध्याय प्राप्त हुए थे और यह भी निर्णय लिया गया था कि भारत के, और जहाँ तक संभव हो सके, विदेशों के संग्रहालयों में उपलब्ध जैन कलाकृतियों पर अध्याय जोड़े जायें । सक्षम विद्वानों से पहले ही अनुरोध किया गया था कि वे अपने अधिकारगत संग्रहों पर लिखें । वह सब प्राप्त सामग्री समाविष्ट की गयी है । किन्तु ऊपर दिये गये कारणों से वह भी अपूर्ण रह गयी है। कुछ संग्रहालय, यथा पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा, और राजकीय संग्रहालय, लखनऊ, जानबूझकर छोड़ दिये गये हैं क्योंकि उनकी विषयवस्तु का अधिकांश स्मारकों और मूर्तिकला संबंधी अध्यायों में आ गया है । यहाँ यह सूचना देना उचित होगा कि निर्वाण महोत्सव के अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा जैन कलाकृतियों की एक प्रदर्शनी का आयोजन किया जा रहा है और ज्ञानपीठ उनका एक सूचीपत्र भी प्रकाशित करेगा । Jain Education International 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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