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अध्याय 1]
संपादक का अभिमत एक विशिष्ट प्रकार की जैन मूर्ति सर्वतोभद्रिका प्रतिमा के रूप में निर्मित होती है जिसे सामान्यतः चौमुखी कहा जाता है और जिसका सबसे प्राचीन रूप मथुरा से प्राप्त हुआ है। इसमें साधारणतः एक चौकोर स्तंभ पर चारों ओर जिन-प्रतिमा उत्कीर्ण की जाती है। चौमुखी की एक प्रकार की संकल्पना बौद्धों को भी ज्ञात थी; लघु बौद्ध स्तूपों पर कभी-कभी बुद्ध की प्रतिमा का
और बौद्ध देवताओं का अंकन स्तूपों के चारों ओर के बालों में पाया जाता है, यद्यपि उनका मूर्तन एक ओर भी हुआ है । यहाँ तक कि सांची के विख्यात स्तूप को भी गुप्त-युग में प्रत्येक कोने में एकएक बुद्ध-प्रतिमा की स्थापना द्वारा चौमुखी का-सा स्वरूप प्रदान किया गया था।
जैन साहित्य में स्तूपों का बहुलता से उल्लेख मिलता है, किन्तु अभी तक केवल ईसा के तत्काल पहले और बाद की शतियों के मथुरा स्थित कंकाली टीले या एकाधिक स्तूपों के ही पुरावशेष मिले हैं। इन स्तूपों के विभिन्न भाग और स्तूप-शिल्प के नमूने कदाचित् ही कोई ऐसी विशेषता प्रदर्शित करते हैं जो समकालीन बौद्ध स्तूपों में परिलक्षित न हो। इसी प्रकार स्वरूप और समय की दृष्टि से जैन स्तूपों की उत्पत्ति बौद्ध स्तूपों से भिन्न नहीं रही होगी। प्राचीन जैन स्तूपों के उल्लेख (यथा, वैशाली का एक स्तूप जो कि राम के समकालीन माने जानेवाले बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत को समर्पित था) के समान ही बौद्ध साहित्य में भी स्तूपों के उल्लेख पाये जाते हैं । नेपाल की तराई के निग्लिवा स्थान में बुद्ध के पूर्वावतार कनकमुनि के स्तूप का प्रमाण अशोक के शिलालेख से मिलता है। मथुरा के जैन स्तूप (अध्याय ६) के लिए प्रयुक्त 'देवनिर्मित' विशेषण हमें शायद बहुत अधिक प्राचीनकाल तक न ले जाये। इस शब्द से केवल यही ज्ञात होता है कि यह प्राचीन स्तूप भक्तों द्वारा बड़ी श्रद्धा से देखा-माना जाता था।
ऊपर की पंक्तियों में बहुत कुछ यह दर्शाया जा चुका है (यदि इसकी कोई आवश्यकता रही हो तो) कि जैन मूर्तिकला और स्मारकों को भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की प्रमुख निधि से न तो अलग ही किया जा सकता है और न ही ऐसा किया जाना चाहिए, क्योंकि वे इस निधि का एक आवश्यक और अभिन्न अंग हैं। अपनी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को दृश्य रूप देने की पूर्ति के लिए जैन धर्मावलंबियों ने भी विकास के उसी पथ का सभी युगों में अनुगमन किया जिसका अन्य धर्मों के अनुयायियों ने । हाँ, अपनी पौराणिक कथाओं और धार्मिक विश्वासों में जो कुछ भी विशेष था, उसे भी उन्होंने मूर्त रूप दिया। किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में भी वे भारतीय कला और स्थापत्य के विकास के मुख्य मार्ग को छोड़कर अलग नहीं गये। पश्चिम भारत में निर्मित जैन मंदिर मध्ययुगीन मंदिरों में
1. पहाड़पुर मंदिर की दूसरी वेदिका पर चार विस्तृत देवकुलिकाएं हैं, जिनमें कभी प्रतिमाएं स्थापित रही होंगी।
इनकी विद्यमानता के आधार पर इस मंदिर का सादृश्य चौमुखी से किया गया है। सरस्वती (एस के). स्ट्रगल फॉर एम्पायर. सम्पा : आर सी मजूमदार तथा ए डी पुसालकर. 1957. बम्बई. पू 637-38. लेकिन इसमें वेदिकायुक्त भाग के शीर्ष की मुख्य वेदी पर ध्यान नहीं दिया गया है जिसकी विद्यमानता का सरलता से अनुमान ईंटों के चबूतरे को घेरनेवाली पर्याप्त रूप से मोटी दीवारों की इंटों की चौकोर रेखा से होता है. दीक्षित (के एन). एक्सकेवेशन्स ऐट पहाड़पुर. मेमोयर्स प्रॉफ द मायालॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया. 55. 1936. दिल्ली. पृ 15.
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