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अध्याय 18 ]
दक्षिणापथ
है। गर्भगृह में महावीर की पद्मासन मूर्ति है । जैसीकि जैन विमानों की विशेषता है, मुख्य मंदिर के दूसरे तल पर एक और मंदिर है । वहाँ तक पहुँचने के लिए प्रखण्ड शैलोत्कीर्ण सीढ़ियाँ हैं, जो सभा मण्डप के उत्तरी-पूर्वी कोने पर हैं। सीढ़ियों के ऊपर एक द्वारक है जिससे खुली छत पर जा सकते हैं । ऊपरी तल के मंदिर में एक कक्ष और अग्रमण्डप है । अधिष्ठान पर उपान, पद्म, कण्ठ, त्रिपट्ट - कुमुद, गल और कपोत-बंध हैं । चालुक्य क्षेत्र में इसी प्रकार के अधिष्ठान का प्रचलन था । भित्तियों पर सादे प्राचीर-स्तंभ हैं जिनके शीर्ष पर प्रवणित धरनें हैं । अधिष्ठान एवं भित्तियों का विन्यास - सूत्र (रूपरेखा) चारों ओर से सीधी और प्रक्षेप या अंतरालविहीन है, जबकि येनियवागुडि में ऐसा नहीं है । भित्तियों के केन्द्रीय और बाहरी भाग वेदिकायुक्त विमान-पंजरों द्वारा अलंकृत हैं । प्रस्तर पर बना हार निवार्गुड से कहीं अधिक रीत्यानुसार बनाया गया है । शिखर विशिष्ट दक्षिण शैली का है ।
सभा मण्डप के दोनों ओर छोटे मार्गों से जुड़े दो उपमंदिर हैं जिनमें से पूर्वी मंदिर में गर्भगृह और मुखमण्डप हैं तथा पश्चिमी मंदिर में गर्भगृह और अंतराल हैं। दोनों ही मंदिर बाद में बनाये गये लगते हैं । दोनों मंदिरों में सरदल के ऊपर ललाट-बिम्ब के रूप में तीर्थंकर - मूर्तियाँ हैं, किन्तु दोनों गर्भगृहों से मूर्तियाँ लुप्त हो गयी हैं। मंदिर की भित्ति पर अंकित १११९ ई० के कन्नड़ अभिलेख में परवर्ती चालुक्य राजवंश के राजा त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य षष्ठ के समय में 'अय्यावोले के ५०० स्वामियों' (स्थानीय वाणिज्यक संघ) के व्यापारी द्वारा मंदिर की मरम्मत तथा कुछ नवनिर्माण करवाने का भी उल्लेख है । इस अभिलेख से मंदिर के निर्माण की अद्यावधि तिथि का ज्ञान होता है । स्पष्टतः मंदिर का मुख्य भाग पर्याप्त समय पूर्व निर्मित हुआ होगा ।
मंदिर के उत्तरी भाग में द्वार-मण्डप के समीप निर्मित उपसंरचना में दो मंदिर हैं जिनमें सामूहिक कक्ष, वीथी और दो ओर से प्रवेश के लिए सीढ़ियाँ हैं । भीतरी और बाहरी तोरण, वीथी के अग्रभाग पर प्रक्षिप्त कपोत, स्तंभयुक्त मण्डप एवं कक्ष - मूर्तियों के शिल्पांकनों से प्रचुर मात्रा में अलकृत हैं । इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दो फलक प्रवेश द्वार के सरदल पर हैं जिनमें २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अंकित हैं ।
समीपस्थ मठ ( जिसके साथ एक प्रायातकार वीथी है) के द्वार की कपोतिका पर विमान अनुकृतियाँ अंकित हैं जो उत्तरी शैली की प्रतीत होती हैं; और पीठिका पर समकालीन तथा परवर्ती अनुकृतियाँ अंकित हैं जो सुदूर दक्षिण के होयसल क्षेत्र में प्रचलित थीं । मठ के अन्य अवयव ग्यारहवीं शती तथा पश्चातकालीन परवर्ती चालुक्य - वास्तुकला के प्रारंभिक चरण के अनुसार हैं । इस स्थापत्य के अवशेष गडग, लक्कुण्डी एवं डम्बल इत्यादि स्थानों में पाये गये हैं ।
राष्ट्रकूट काल और परवर्ती चालुक्यों के प्रारंभिक काल में, या किंचित् आगे-पीछे, पटडकल की सीमा पर निर्मित जैन विमान (चित्र १२६) एक विशिष्ट वास्तु- स्मारक है । यह तीन तल का सांधार-विमान है और ग्राधार से शिखर तक चौकोर है । अधिष्ठान कम ऊंचा है और उसपर सामान्य
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