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________________ अध्याय 18 ] दक्षिणापथ पिछली भित्ति पर उत्कीर्ण वर्द्धमान की एक बड़ी पद्मासन मूर्ति तथा उनकी यक्षी सिद्धायिका की मूर्ति अवशिष्ट है । सिद्धायिका की मूर्ति अब सामने की वीथी में रख दी गयी है। भागलकोट से बीस किलोमीटर दूर हल्लूर में मेगुडी नामक जैन मंदिर ऐहोले के मेगुटी मंदिर से न केवल नाम वरन् रूपरेखा में भी समान है। ऐसा नहीं लगता कि ऐहोले का मंदिर हल्लूर के मेगुडी मंदिर से विशेष कालांतर में बनाया गया होगा। किन्तु इसके प्रथम तल के गर्भगृह के शिखर की अधिरचना से स्पष्ट है कि यह मंदिर अधिक परिरक्षित है। इसमें अर्धमण्डप के दोनों ओर की भित्तियों पर बनी देवकुलिकाएँ एवं छत पर पहुंचने के लिए अखण्ड-शिला पर उत्कीर्ण सीढ़ियाँ चालुक्य राज्य में प्रचलित आद्य प्रथाओं के प्रयोग का प्रमाण हैं । इस मंदिर को सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का माना जा सकता है। ऐहोले में अन्य जैन मंदिर भी हैं, यथा, येनियवाणु डि, योगी-नारायण समूह, एवं चारण्टी मठ । येनियवाणु डि समूह में छह मंदिर हैं, जिनमें से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इस मंदिर का मुख पश्चिम की ओर है और प्रवेश उत्तर की ओर से एक स्तंभयुक्त मुख-मण्डप में होकर । मुख-मण्डप के चार स्तंभ हैं और वह सभा-मण्डप के साथ संलग्न है। मुख-मण्डप दसवीं शताब्दी की शैली में बना है और उसके सामने एक ध्वज-स्तंभ है। सरदलों पर ललाट-बिम्ब के रूप में गजलक्ष्मी का अंकन है। अधिष्ठान के ऊपर वेदी या व्यालवरि का अभाव है, किन्तु उसपर उपान, पद्म, कण्ठ, त्रिपट्ट-कुमुद, गल एवं प्रति निर्मित हैं । भित्तियाँ शिल्पांकित तथा अंतरालयुक्त हैं जिनमें क्रमशः कर्ण, केन्द्रीय भद्र और दो मध्यवर्ती अनुरथ प्रक्षेप हैं । अनुरथों पर विमान-पंजर अलंकरण हैं जो देवकोष्ठों को परवेष्टित किये हुए पास-पास निर्मित युगल भित्ति-स्तंभों पर सुशोभित हैं। प्रस्तर के उत्तीर पर हंसवलभी, किंचित् प्रक्षिप्त कपोत तथा शीर्ष पर वेदी और व्यालवरि हैं, जिनपर हार के अंग निर्मित हैं। विमान के दो तल हैं किन्तु उसके शीर्षभाग से ग्रीवा, शिखर एवं स्तूपी लुप्त हो गये हैं। फिर भी जो अंग अवशिष्ट हैं उनसे स्पष्ट है कि यह मंदिर विशिष्ट दक्षिणी विमान-शैली का है जो नौवींदसवीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में विकसित हई और जिसके आधार पर इस मंदिर की तिथि प्रारंभिक या मध्य दसवीं शती निश्चित की जा सकती है। समीपस्थ मंदिर तथा उप-मंदिर कम महत्त्व के हैं, रिक्त हैं, और अब उनमें कोई भी उल्लेखनीय मूर्ति अवशिष्ट नहीं है। इस समूह का सबसे भीतरी मंदिर दक्षिणमुखी है। इसके सामने चार अलंकृत स्तंभों का आयताकार यथा प्रावृत मुख-मण्डप है, मण्डप की भित्तियों पर निर्मित अर्धस्तंभ सादा और चतुर्भजी हैं । मण्डप के चारों स्तंभ प्रारंभिक चालुक्य शैली के विकृत रूप हैं। इनमें आधारपीठ पर शदुरम चौकी है। दण्ड छोटे और धारीदार हैं, जिनमें ऊपर की ओर के निकट वृत्त खण्ड हैं, स्तंभों पर पालि या पदम और फलक का प्रयोग नहीं किया गया है। इनकी पोतिकाओं (धरनों) की भुजाएं प्रवणित (ढलूवाँ) हैं जिनपर तरंग शिल्पांकन और मध्य में सादी धारियाँ हैं । मेगडी मंदिर की भांति, इसकी छत समतल है और उसपर मुंडेरें बनी हुई हैं। नीचे की ओर छत ढलवा है जिससे स्पष्ट है कि कक्ष 203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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