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________________ अध्याय 18] दक्षिणापथ का चौक निचले खण्ड से छोटा तथा कम ऊँचाई का है। इसमें चतुर्दिक प्रक्षिप्त चार नासिकाएँ हैं, किंतु हार की शालाएँ या कूट नहीं हैं। नासिका-तोरण सिंहमुखी कंगूरों से आवेष्टित हैं। तीसरे र का चौक और भी छोटा तथा कम ऊँचा है। इसमें हार के अंगकूट शाला या पंजर कुछ भी नहीं है, किंतु चारों कोनों की चोटी पर चार सिंह बने हैं जो जैन मंदिरों के विशिष्ट प्रतीक हैं और शास्त्रोक्त मान्यता के अनुसार बनाये गये हैं । जैन शास्त्रों के अनुसार शीर्षस्थ खण्ड भूमितल के गर्भगृह में जिस तीर्थंकर की मुख्य प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाये उसके प्रतीक या वाहन को विमान के शीर्षस्थ खण्ड के कोनों पर अंकित किया जाना चाहिए । अष्टभुजी ग्रीवा शिखर के आठ कोणों से लघु महानासिकाएँ ढलुवाँ छत की भाँति बाहर की ओर निकली हुई हैं। छोटा कैलास एवं चौमुख में बृहत् कैलास की भाँति आठवीं शती की विमान-मंदिर-शैली की सभी विशिष्टताएँ विद्यमान हैं। छोटे कैलास की अपेक्षा चौमुख मंदिर स्थापत्य की अधिक सरल एवं भव्य कृति है। निमित मंदिर प्रस्तर-निर्मित रचनाओं के आद्यरूपों में पूर्ववर्ती चालुक्यों द्वारा उनकी राजधानियों बादामी, महाकुटेश्वर तथा ऐहोले और पटडकल नगरों में निर्मित कुछ जैन रचनाएँ हैं जिनमें ऐहोले का मेगुटी मंदिर (चित्र १२० ख) अपनी उत्कृष्टता एवं आधारशिला के पुरालेखीय साक्ष्य की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह अभिलेख संस्कृत पद्य के रूप में है, जो कोई सामान्य रचना नहीं है, वरन उस युग की प्रशंसात्मक काव्य-रचना का सुदर उदाहरण है। अभिलेख में पुलकेशी-द्वितीय के राज्यकाल में सन् ६३४ में इस मंदिर के निर्माण का वर्णन है। इसमें पुलकेशी-द्वितीय की विभिन्न विजय-यात्राओं का भी विवरण है एवं इसके रचयिता रविकीर्ति की प्रशंसा करते हुए उसकी तुलना कालिदास और भारवि से की गयी है। यह मंदिर मुख्यतः बंद-मण्डप प्रकार का चौक है जिसमें मध्य के चार स्तंभों के स्थान पर गर्भगृह है। इसकी एक बाहरी भित्ति बारह सीमावर्ती भित्ति-स्तंभों को जोड़ते हुए बनायी गयी है। इस प्रकार भीतर और बाहर की भित्ति के बीच में परिक्रमा करने के लिए सांधार-मार्ग बन गया है। इससे बने गर्भगृह की छत पर एक और मंदिर बना है। मुख्य गर्भगृह के तीन ओर अंतिम पाश्ववर्ती कोनों और मध्यवर्ती खण्ड में पाँच कक्ष बनाये गये, जबकि सामने के खण्ड और पूर्ववर्ती कोनों के समानांतर क्षेत्रों में एक आड़े ढंग का आयताकार मण्डप है। पीछे के दो कक्ष मुख्य गर्भगृह की भाँति वर्गाकार, किंतु अपेक्षाकृत छोटे हैं और गर्भगृह के समानांतर न होकर थोड़ा पीछे की ओर होते हुए दो पार्श्व मंदिरों का निर्माण करते हैं। उनके साथ उसी पंक्ति में मुख्य गर्भगृह के पार्श्ववर्ती दो आयताकार कक्ष हैं। दोनों अंतराल-मण्डप के रूप में हैं तथा सामने के संयुक्त मण्डप की पोर खुलते हैं। अंतराल-मण्डपों की छत समतल है जबकि पीछे के वर्गाकार कक्षों की छत ढलुवाँ है। 201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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