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________________ अध्याय 18 ] दक्षिणापथ में पाया जाता है। इन मंदिरों के बाह्य आकार को ईंट-लकड़ी से निर्मित भवन की रूपरेखा देने के लिए अखण्ड चट्टान को पहले ऊपर से नीचे की ओर काटा जाता था और फिर भीतर उत्खनन करके मण्डप तथा गर्भगह के विभिन्न अंग उत्कीर्ण किये जाते थे । कालांतर में पल्लव राज्य और सुदूर दक्षिण में इन शैलोत्कीर्ण मंदिरों ने प्रस्तर-निर्मित मंदिरों के उद्भव का मार्ग प्रशस्त किया। समसामयिक बादामी चालुक्यों के राज्यकाल में ईंट-लकड़ी से निर्मित भवन के मूल स्वरूप के अनुसार अखण्ड शिला पर उत्कीर्ण मंदिरों की परंपरा को छोड़ दिया गया। इस युग में बलुए प्रस्तर-खण्ड काटकर चिनाई द्वारा मंदिर-निर्माण प्रारंभ हा क्योंकि अपेक्षित माप के प्रस्तर-खण्ड काटना अधिक सुविधाजनक था। किंतु अखण्ड शिला से मंदिर-रचना का विचार इतना अद्भुत था कि तत्कालीन एवं परवर्ती राजवंशों तथा क्षेत्रों में इस शैली का बहुत प्रसार हुआ । उदाहरणतः, तिरुनलवेली जिले में पाण्डवों का बेट्टवान्कोविल, विजयवाड़ा, अंदवल्ली और भैरवकोण्डा के मंदिर क्रमश: वेंगी चालुक्यों तथा तेलगुचोलों के प्रश्रय में निर्मित हुए। धमनर (जिला मंदसौर), मसरूर (जिला कांगड़ा), ग्वालियर (चतुर्भुजी मंदिर), कोलगाँव (जिला भागलपुर) जैसे दूरवर्ती क्षेत्रों में भी इस प्रकार के मंदिर की रचना का विस्तार दष्टिगोचर होता है। पश्चिम भारत के बौद्ध गफा-चैत्य-कक्षों में उत्कीर्ण स्तूपों तथा विदिशा जिले में उदयगिरि की 'तवा' गुफा में उपलब्ध गुप्तकालीन अर्धविकसित, लगभग वृत्ताकार, विमान-मंदिर में प्रखण्ड-शिला-मंदिर के मूलस्वरूप को देखा जा सकता है जिसे बलुए पत्थर की किसी एकाकी चट्टान में अर्धवृत्ताकार नींव काटकर ऊपर तवे के आकार के सपाट शिलाखण्ड से आच्छादित किया गया है। दक्षिण में राष्ट्रकूटों के पूर्ववर्ती चालुक्यों द्वारा विकसित की गयी प्रस्तर-निर्मित मंदिर-शैली और इस शैली में राष्ट्रकूटों की अपनी उपलब्धियों के होते हुए भी राष्ट्र कूट राजाओं ने एलोरा के प्रसिद्ध कैलास नामक अखण्ड-शिला-मंदिर-समूह की रचना में एक बृहद चट्टान के मध्यभाग को काटकर विमान मंदिर, चारों ओर परिधीय मंदिर, संकेंद्रित मण्डप तथा पार्श्ववर्ती प्राकारों से युक्त गोपुर और इनके बीच में एक खुले हुए आँगन को उत्कीर्ण कर अखण्ड-शिला-मंदिर विन्यास का अत्यंत साहसिक पग उठाया था। शिव को समर्पित इस मंदिर की रचना का श्रेय राष्टकूट राजा कृष्णतृतीय (७५७-८३) को दिया जाता है। यद्यपि यह मंदिर अपने वर्ग में सर्वाधिक बृहदाकार है, स्थानीय जैनों ने वहीं एलोरा की चोटी पर इसी विन्यास में एक छोटे कैलास-मंदिर-समूह की रचना की। छोटा कैलास और इंद्र-सभा-प्रांगण में उत्कीर्ण चौमुखी-विमान अखण्ड-शिला-मंदिर-संरचना के चरमोत्कर्ष के प्रतीक हैं। छोटा कैलास (गफा ३०) बहत कैलास से एक चौथाई विस्तार का है। छोटा करने की प्रक्रिया में इसकी अधिरचना अनुपातहीन हो गयी है और अपूर्ण भी है। मध्य शिला को चारों ओर से काटकर ४०४२५ मीटर क्षेत्र का गड्ढा बनाया गया है । मंदिर का मुख पश्चिम की ओर है। मुख्य विमान में अन्य जैन मंदिरों के सदृश दो तल हैं जिनके कारण ये खंड और भी अधिक अनुपातहीन लगते हैं। नीचे के खण्ड में यक्ष-यक्षी द्वारा परिचारित महावीर की विशाल प्रतिमा गर्भगृह में - 199 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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