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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4 कराया गया था । उसके उत्तराधिकारी नागभट-द्वितीय (सन् ७६३-८३३) ने अपने गुरु बप्पभट्टि-सूरि का सम्मान किया और कन्नौज तथा गोपगिरि में जैन मंदिरों का निर्माण कराया। बप्पभट्टि-सूरि के शिष्य नन्न-सूरि और गोबिंद-सूरि का प्रतीहार सम्राट मिहिर भोज (लगभग ८३६-८५) द्वारा उचित स्वागत-सम्मान किया गया था। मंदौर के प्रतीहार कक्कुकराज द्वारा सन् ८६१ में घटियाला नामक स्थान पर जैन मंदिर का निर्माण कराया गया था। मेवाड़ के गहिल भर्त भट-प्रथम ने भटेवर नगर में, जिसकी उसने लगभग सन् ६३० में स्थापना की थी, गुहिल-विहार का निर्माण कराया। हठूडी के राष्ट्रकूट शासकों में विदग्धराज ने हळूडी में सन् ६१७ में ऋषभ-मंदिर का निर्माण कराया था तथा उसके पुत्र मम्मट और प्रपौत्र धवल ने इस मंदिर की व्यवस्था और पूनिर्माण के लिए अनुदान दिये।
दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में रघुसैन नामक एक राजकुमार ने उत्तर-पश्चिम गुजरात के रामसैन नामक स्थान पर एक जिन-भवन का निर्माण कराया। किन्तु गुजरात के चौलुक्य शासकों द्वारा कराये गये निर्माण कार्य इनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । मूलराज-प्रथम (९४२-६५) ने अनहिलवाड़ पाटन में दिगंबर आम्नाय के लिए मूल-वसतिका तथा श्वेतांबरों के लिए मूलनाथ-जिनदेव-मंदिर का निर्माण कराया था। उसके उत्तराधिकारी चामुण्डराज ने सन ९७७ में वदसम स्थित जैन मंदिर को अनुदान दिया था। उत्तरवर्ती चौलुक्य नरेशों द्वारा कराये गये निर्माण कार्यों का विवेचन यथास्थान आगामी अध्याय में किया जायेगा।
कृष्ण देव
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