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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 कुछ स्थल हैं और उनमें पतली देह-यष्टि पर अपेक्षाकृत भारी सिर निर्मित किये गये हैं। वल से प्राप्त प्रतिमाओं का वस्त्रांकन सिरोही जिले में वसंतगढ़ से प्राप्त ६८७ ई० की तीर्थंकर की एक सुंदर कांस्य प्रतिमा के वस्त्रांकन का पूर्वरूप है। वसंतगढ़ से ही लगभग ७०० ई० की सरस्वती की खड्गासन-मुद्रा में अंकित एक छोटी-सी ताम्र-प्रतिमा तथा तीन कलात्मक रूप से उत्कीर्ण त्रि-तीथिक कांस्य प्रतिमाएँ, जिनका समय लगभग सन् ७५० निर्धारित किया जा सकता है, प्राप्त हुई हैं। भिनमाल से प्राप्त खड्गासन मुद्रा में दो कांस्य तीर्थंकर-प्रतिमाओं का, जिनका समय आठवीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है, वस्त्रांकन ६८७ ई० की निर्मित वसंतगढ़ की कांस्य तीर्थंकर-प्रतिमा के अनुरूप है, वैसे भिनमाल की प्रतिमाओं की रचना कुछ बेडौल तथा कलात्मक दृष्टि से निम्नस्तरीय है। इसी स्थान से प्राप्त और इसी काल की निर्मित, पद्मासन-मुद्रा में ऋषभनाथ की कांस्य प्रतिमा उच्च श्रेणी की है, जिसकी तुलना वसंतगढ़ की तिथियुक्त तीर्थंकर-प्रतिमा से की जा सकती है। . ओसिया स्थित आठवीं शताब्दी के महावीर-मंदिर की पाषाण-प्रतिमाएँ प्रतिरूपण और स्थल रचना में सामान्यत: अकोटा तथा वसंतगढ़ की समकालीन कांस्य प्रतिमाओं, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है, के समान हैं किन्तु सामग्री की विविधता के कारण उनमें स्पष्टत: कुछ अंतर है। सिरोही जिले में नंदिया स्थित सातवीं/आठवीं शती के महावीर-मंदिर के चमरधारी अनुचरों की पाषाण-प्रतिमाएँ प्रतिरूपण की उत्कृष्टता प्रदर्शित करती हैं । भटेवर से प्राप्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा जो अब गुजरात के चस्मा स्थित जैन मंदिर में है, शैलीगत रूप से इसी काल की है। नौवीं शताब्दी की राष्ट्रकूट कला का एक उत्तम उदाहरण हमें धूलिया जिले के चहरदी से प्राप्त कांस्य चतुर्विंशति-पट्ट पर ऋषभनाथ की एक सुंदर प्रतिमा के रूप में प्राप्त है। इस प्रतिमा की नेत्र-रचना तथा अनुचरों की आकृतियों के अंकन में कर्नाटक का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। अभिलेख के अनुसार यह प्रतिमा चंद्रकुल के प्रद्युम्नाचार्य के एक शिष्य द्वारा स्थापित करायी गयी थी । इस प्रतिमा की समकालीन तथा इन्हीं प्राचार्य को उनके एक अन्य शिष्य द्वारा समर्पित पार्श्वनाथ की एक अन्य कांस्य निर्मित त्रि-तीथिक प्रतिमा है जिसके पार्श्व में गज पर आरूढ़ एक यक्ष (मातंग ?) और सिंह पर आरूढ़ अंबिका यक्षी अंकित है। यह प्रतिमा जैसलमेर के निकट अमरसागर के जैन मंदिर में प्रतिष्ठित है, जहाँ आज भी उसकी उपासना होती है। राष्ट्रकूट मूर्तिकला अपने उत्कृष्टतम रूप में ऐलोरा की जैन गुफाओं की प्रतिमाओं से समानता कर सकती है। 1 शाह, पूर्वोक्त, पृ 22, चित्र 19, 49 तथा 72. 2 वही, पृ 22, चित्र 35 ए तथा 35 बी. 3 बही, चित्र 29 ए. 4 क्रमरिश (स्टेला). पार्ट प्रॉफ इडिया. चित्र 54. 5 शाह, पूर्वोक्त, पृ 24, चित्र 7. 6 [इसका विवेचन अध्याय 18 में किया गया है-संपादक] 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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