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________________ अध्याय 16 ] मध्य भारत भीतरी प्रदक्षिणापथ की तीनों दिशाओं में तीन देवकोष्ठ हैं । दक्षिण दिशा के प्रमुख देवकोष्ठ में पद्मासन तीर्थंकर-मूर्ति है तथा उत्तरी दिशा के एक देवकोष्ठ में यक्षी चक्रेश्वरी स्थित है। प्रौढ़ तथा आलंकारिक वास्तुकला एवं सुविकसित मूर्तिकला के आधार पर इस मंदिर का रचना-काल नौवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित किया जा सकता है। यह मंदिर मध्य भारत की प्रतीहारकालीन स्थापत्य शैली का चरमोत्कर्ष प्रदर्शित करता है। देवगढ़ के जैन मंदिर देवगढ़ किले के पूर्वी क्षेत्र में लगभग ३१ जैन मंदिरों का एक समूह है (रेखाचित्र ६), जिसमें नौवीं से बारहवीं शताब्दी तथा उससे भी परवर्ती काल के मंदिर सम्मिलित हैं। मध्य भारत में यह स्थान तीन शताब्दियों के लंबे समयांतराल में जैन कला एवं स्थापत्य के विकास का अध्ययन करने के लिए उल्लेखनीय केन्द्रों में से एक है। यहाँ पर लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दियों का भी एक जैन मंदिर था, इस तथ्य का प्रमाण यहाँ से उपलब्ध गुप्तोत्तर शैली के कुछ वास्तु-अवशेषों और एक तीर्थकर प्रतिमा से मिलता है। वर्तमान मंदिरों में अधिकांशतः दस से बारहवीं शती के हैं। पूर्ववर्ती दो शताब्दियों के मंदिरों की संख्या वास्तव में बहुत कम है। मंदिर संख्या ११, १२ और २८ जैसे कुछ मंदिरों को छोड़कर शेष मंदिर अलंकरणविहीन तथा छोटे आकार के हैं । इनकी रूपरेखा या तो वर्गाकार है या आयताकार । प्रत्येक मंदिर एक विशाल कक्ष है। कुछ मंदिरों में इस कक्ष के पिछले भाग में बाहर एक छोटा गर्भगृह भी है, कुछ में नहीं है। किन्तु सामान्यतः सभी के आगे एक बरामदा या प्रवेशमण्डप है । अधिकांश मंदिर समतल शिखरयुक्त हैं, पर कुछ पर छतरियाँ बनी हैं। क्रमांक २५ से ३१ तक के मंदिर एक घने झुंड के रूप में निर्मित हैं, शेष मंदिर यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं जिनमें से मंदिर क्रमांक १, २ तथा १० एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं। मंदिर क्रमांक २२ तथा २४ (क) के अतिरिक्त क्रमांक १२ और १५ तथा क्रमांक १२ के के आस-पास के सात छोटे मंदिर नौवीं शताब्दी के हैं। मंदिर क्रमांक १२ के प्रवेशमण्डप के स्तंभ पर उत्कीर्ण विक्रम संवत् ११६ (८६२ ई.) के अभिलेख के आधार पर इन मंदिरों का रचनाकाल लगभग ८५०-६०० ई. निर्धारित किया जा सकता है। यहाँ उपलब्ध असंख्य वास्तु-अवशेष और 1 [ इस मंदिर-समूह में कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जिनका रचना-काल इस भाग की विचाराधीन अवधि से परवर्ती है, किन्तु अध्ययन की दृष्टि से इस समूह को कालखण्डों में वर्गीकृत न करना सुविधाजनक प्रतीत हुआ है.- संपादक] 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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