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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई० [ भाग 3 में बड़ी और दुहरे चूड़ामणियुक्त पर्त तथा दोनों ओर दो छोटी पर्तों से निर्मित है। ग्रीवा में मनोहर एकावली है। नयनों में रंजित रजत, जो धूमिल पड़ चुकी है, विस्तृत स्कंधों युक्त देह, सुविकसित वक्षस्थल, कुछ-कुछ क्षीण कटि-प्रदेश, सुन्दर मुख, किनारी पर मणिकाओं युक्त अण्डाकार प्रभामण्डल तथा अभिलेख की पुरालिपि के आधार पर हम इस कांस्य मूर्ति को लगभग छठी शती के मध्यकाल का मान सकते हैं। अकोटा समूह की एक अन्य प्रतिमा, जो कायोत्सर्ग-मुद्रा में प्रथम तीर्थंकर (ऋषभनाथ) की है, विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। इसमें तीर्थकर (ऊंचाई २५ सें० मी०) आयताकार पादपीठ (३३ सें० मी०४६ सें. मी. लम्बे-चौड़े) के मध्य में खड़े हैं। पादपीठ के दोनों सिरों पर दो कमलपुष्प अंकित हैं, जिनपर प्रत्येक में एक यक्ष तथा यक्षी की मूर्तियाँ हैं (चित्र ६७-ख)। पृष्ठभाग में अन्य तीर्थंकरों के लिए पट्टिका अथवा प्रभामण्डल के लिए आधार-पेटिका या दोनों मूलतः उन छिद्रों में स्थित थे, जो पादपीठ के ऊपरी तल पर दृष्टिगोचर होते हैं। वृत्त में अंकित ऋषभनाथ की मूर्ति पृथक ढाली गयी है और केन्द्र में धर्म-चक्र के ऊपर संयुक्त कर दी गयी । धर्म-चक्र के दोनों ओर सुंदर हरि हैं। ऋषभनाथ के रूप में तीर्थंकर की पहचान उनके स्कंधों पर लटकती हुई केशराशि से हुई है। इसमें संवारे हए कंचित केश और उष्णीष द्रष्टव्य हैं। बड़े नेत्र, विस्तृत ललाट, थोड़ी नुकीली नाक, सुडौल मुख तथा बौने धड़ पर छोटी ग्रीवा ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्रारंभ में गुजरात तथा पश्चिम भारत के अन्य स्थानों में प्रकट हुई हैं। ये प्रारंभिक पश्चिम भारतीय शैली के लक्षण हैं, न कि परवर्ती युग के । तीर्थकर के शरीर पर पारदर्शी धोती है, जिसमें से जननेन्द्रिय का स्वरूप स्पष्ट झलकता है। धोती सुन्दर रंगों में छापी गयी है जिसमें समानांतर पंक्तियों के मध्य पुष्प अंकित हैं। पुष्पों का अंकन एक आद्य कला-प्रतीक है। स्कंध चौड़े और सुदृढ़ हैं; कटि पतली, हाथ और टाँगें सुनिर्मित हैं तथा वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिह्न है। ये सभी विशिष्टताएँ उत्तर गुप्त-युग, लगभग ५४०-५०, की बोधक हैं। इसकी पुष्टि पृष्ठभाग में अंकित अभिलेख की भाषा से होती है जिसमें लिखा है : जिनभद्र वाचनाचार्य के निवृत्ति कुल की ओर से यह उपहार है। इस कांस्य प्रतिमा को स्थापित कराने वाले जिनभद्र वाचनाचार्य की पहचान प्रसिद्ध जैन विद्वान् और मुनि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से की गयी है, जो ५००-६०६ के बीच लंबे समय तक जीवित रहे थे ।। पादपीठ के दायें सिरे पर विराजमान यक्ष की पहचान सर्वानुभूति के रूप में की जाती है जो विशाल उदर तथा दो भुजाओंवाले हैं, जिनके दाहिने हाथ में फल (तुरंज) तथा बायें हाथ में धन 1 शाह, पूर्वोक्त, 1959, चिन्न 10 क, 10 ख, 11, पृ 28-29, 4 29, नोट 7. 144 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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