________________
वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3 और ५२) का काल तीसरी या चौथी शती ईसवी निर्धारित किया गया है। कनिंघम ने पश्चिमी गुफा का तादात्म्य प्रसिद्ध सप्तपर्णी गुफा के साथ स्थापित किया था जहाँ प्रथम बौद्ध संगीति आयोजित की गयी थी। कालांतर में दूसरी गुफा का पता चलने पर, बेग्लर ने यह सुझाया कि ये दोनों गुफाएँ बुद्ध और उनके शिष्य आनंद से संबंधित हैं। पश्चिमी गुफा की बाहरी भित्ति पर उत्कीर्ण शिलालेख के प्रकाश में आ जाने के फलस्वरूप इन सुझावों को अमान्य कर देना चाहिए । इस संस्कृत शिलालेख में यह घोषित किया गया है कि मुनि वैर (वज्र) ने इन दो गुफाओं का निर्माण साधुओं के लिए करवाया था और उनमें अर्हतों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित करवायी थीं। ब्लॉख ने इस शिलालेख को तीसरी या चौथी शती ईसवी का बताया था। कोनोव ने गुफा के निर्माण की तिथि एक शताब्दी
और पीछे कर दी। शाह ने कोनोव का समर्थन किया और शिलालेख में उल्लिखित मुनि वैर की पहचान वज्र नामक महान् श्वेतांबर प्राचार्य से की है, जिनकी मृत्यु महावीर-निर्वाण के ५८४ वें वर्ष (५७ ईसवी) में हुई थी। शाह ने सरस्वती का ही मत माना है (यद्यपि एक भिन्न प्रमाण के आधार पर) । सरस्वती यह मानते हैं कि सोनभण्डार गुफा की समानता निश्चित रूप से मौर्यकालीन बराबर और नागार्जुनी गुफाओं से है और उसकी निर्माण-तिथि इन गुफाओं से बहुत परवर्ती नहीं हो सकती। जो भी हो, ब्लॉख द्वारा सुझायी गयी इस शिलालेख की तिथि को कुरैशी और घोष ने ठीक
1 आर्क यॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया. रिपोट्स. खण्ड 3. 1873. कलकता. पृ 140 तथा परवर्ती. इससे पहले
कनिंघम ने पिप्पल गुफा के साथ इसका तादात्म्य स्थापित किया था, (वही, 1.1871. शिमला. पृ 24). 2 कुरैशी, पूर्वोक्त, 1931, पृ 121. 3 प्रायॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया. एनुअल रिपोर्ट, 1905-6. 1909. कलकत्ता. पृ98 पर श्री ब्लॉख का
अभिमत. 4 वही, पृ 106. 5 शाह, पूर्वोक्त, पृ 14. शाह वज्र नाम के केवल दो ही जैन प्राचार्यों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इनमें से पहले
का उल्लेख 'आवश्यक नियुक्ति' में आया है और दूसरे का 'त्रिलोक-प्रज्ञप्ति' में । शाह के अनुसार, इनमें से प्रथम का उल्लेख सोनभण्डार शिलालेख में किया गया है. इस पहचान में कालक्रम संबंधी जो असंगति है उसके विषय में शाह का मत यह है कि यह शिलालेख ही संभवत: मरणोपरांत उत्कीर्ण किया गया हो. वे उक्त दो प्राचार्यों के अतिरिक्त वैर नामक किसी अन्य व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनका कथन है कि यदि ऐसा होता तो अन्य व्यक्ति का नाम विभिन्न स्थविरावलियों में उल्लिखित हुए बिना नहीं रहता'. द्रष्टव्य : शाह (उमाकांत प्रेमानंद): जर्नल प्रॉफ बिहार रिसर्च सोसायटी. 39; 1953; 410-12. [डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन ने एक व्यक्तिगत पत्र में लिखा है--'वैरदेव नाम के एक दिगंबर साधु का उल्लेख कर्नाटक के चौथी शती ईसवी की लगभग मध्यावधि के एक लेख में आया तो है (एपिग्राफिया कर्नाटिका. 10; 19053B 73 - संपादक]
6 [पाठवां अध्याय भी द्रष्टव्य--संपा.] गुफाओं की सादगी में संदेह नहीं किया जा सकता। किन्तु यह तथ्य महत्त्व
पूर्ण है कि ये सोनभण्डार गुफाएं उदयगिरि (विदिशा) की गुफाओं से इतनी समान हैं कि वे भी पूर्ण रूप से शै लोत्कीर्ण नहीं हैं. सोनभण्डार गुफाओं के बाहरी भाग पर बने हुए कोटर यह संकेत देते हैं कि इनमें प्रारंभ से
124
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org