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अध्याय 10 ]
मथुरा ५. सामान्यतः, अाँख की पुतलियाँ चित्रित नहीं की गयी हैं। मथुरा संग्रहालय (पु० सं० म० : बी-५३) की एक मूर्ति को एक दुर्लभ अपवाद के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। मथुरा से प्राप्त अनेक गुप्तकालीन जैनेतर मूर्तियों से भी यह स्पष्ट होता है कि आँख की पुतलियों का चित्रण करने की प्रथा प्रचलित नहीं थी।
६. होठ साधारणतः मोटे और लम्बे हैं और कान कंधों को छूते हैं।
७. सामान्यतः चेहरा गंभीर है, किन्तु किसी-किसी में मधुर मुसकान भी दृष्टिगोचर होती है (रा० सं० ल० : जे-२०७, बी-४५, ६७.१८६ आदि)।
खण्डित कृतियाँ
ऐसी कृतियाँ इतनी खण्डित हैं कि उन्हें ऊपर बताये गये वर्गों में से किसी भी वर्ग में रखना कठिन है । उदाहरण के लिए राजकीय संग्रहालय, लखनऊ की जे-२ क्रमांकित कृति एक अभिलेखांकित पादपीठ है जिसपर वर्ष २६४ (३७७ ई.) अंकित है।
विशेष लक्षण : प्रासन और उनका अलंकरण
प्रत्येक तीर्थंकर के लिए किसी न किसी प्रकार का प्रासन बनाया गया है। इन आसनों में प्राचीनतम अर्थात् गुप्त-काल से पहले के, प्रासन का रूप पादपीठ के साथ ही सादा होता था । गुप्त-काल में यह प्रासन एक प्रकार के गलीचे से ढका हुअा होने लगा, जिसके एक भाग को पादपीठ के सामने लटकता हुआ देखा जा सकता है (पु० सं० म० : बी-७, चित्र ४६ ; रा० सं० ल० : जे-११६)।
उक्त गलीचे के ऊपर एक भारी गही है, जो ध्यानस्थ तीर्थंकर के लिए आसन का काम देती है। इस गद्दी पर प्रायः आलंकारिक सज्जा होती है (पु० सं० म० : १५.९८३, बी-७, चित्र ४६ इत्यादि) । जो भी हो, एक प्राकृति पर कमल-पंखुड़ियों का अतिरिक्त अलंकरण भी है (पु० सं० म० : १८.१३८८)।
कुछ मूर्तियों में गद्दी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होती । किन्तु ध्यानस्थ मूर्ति के पद्मासन की यत्र-तत्र अस्वाभाविक स्थिति से उसके अस्तित्व का आभास होता है (पु० सं० म० : बी-१; रा० सं० ल० : जे-११८, चित्र ४४ आदि) । उपर्युक्त उदाहरणों में, पद्मासनस्थ टाँगें मेरुदंड से ठीक समकोण नहीं बनातीं अपितु सामने की ओर झुकी हुई देखी जा सकती है - यह स्थिति तब होती है, जब कोई ऐसे ऊँचे आसन पर बैठे, जिसकी गद्दी छोटी हो।
सुसज्जित पृष्ठ-अवलंब का प्रारंभ भी गुप्त-काल में ही हुआ। एक कलाकृति में (रा० सं० ल० : जे-११८, चित्र ४४) सीधी छड़ों से युक्त एक पृष्ठ-अवलंब, अनुप्रस्थ धरनों (शहतीरों) और लपकते हुए सिंह के अलंकरण देखे जा सकते हैं।
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