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________________ अध्याय 10 मथुरा उपलब्ध सामग्री चौथी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में गुप्त-शासकों के प्रादुर्भाव के साथ ही जैन कला और स्थापत्य को मथुरा में गहरा धक्का लगा प्रतीत होता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जहाँ एक ओर पूर्व-गुप्तकालीन लाल चित्तीदार बलुए पत्थर की अनेकों तीर्थंकर मूर्तियाँ, पायाग-पट, चैत्य-स्तंभ, वेदिका-स्तंभ, उष्णीष-स्तंभ सरदल और शिल्पांकित वास्तु-अवशेष प्राप्त होते हैं, वहीं दूसरी ओर गुप्तकाल में इस प्रकार की कलाकृतियों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी हुई है। पुरातत्त्व संग्रहालय, मथुरा (पु० सं० म०) और राज्य संग्रहालय, लखनऊ (रा० सं० ल०) में जहाँ मथुरा के अधिकांश पुरावशेष संग्रहीत हैं, क्रमश: केवल अड़तीस और इक्कीस ऐसी जैन मूर्तियाँ संगृहीत हैं, जिन्हें निश्चय रूप से गुप्त-युगीन कहा जा सकता है। इस प्रकार की कितनी मूर्तियाँ इस देश के अन्य संग्रहालयों में तथा कितनी विदेशों में हैं, इसकी ठीक-ठीक सूचना सुगमता से उपलब्ध नहीं है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल की मथुरा-कलाकृतियाँ पर्याप्त संख्या में कहीं भी नहीं हैं। गप्त-काल की वास्तु-कलाकृतियों की स्थिति और भी शोचनीय है। लखनऊ या मथुरा संग्रहालय में से किसी में एक भी महत्त्वपूर्ण जैन कृति नहीं है। और न वहाँ मृण्मूर्तियाँ ही हैं। उक्त तथ्यों के कारण स्वाभाविक रूप से ही यह विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि कुषाणकाल के पश्चात्, मथुरा में जैन धर्म को पर्याप्त क्षति उठानी पड़ी, किन्तु इसके क्या कारण थे, यह बता सकना कठिन है। यह विवरण तो प्राप्त होता है कि जनों और बौद्धों में वाद-विवाद हया था, जिसमें जैनों की विजय हई थी। यदि जैनों की यह विजय तात्कालिक रही हो और गप्त-काल में बौद्ध मथुरा में पर्याप्त प्रभावशाली भी थे, तो भी यह वाद-विवाद जैन धर्म की जड़ों को हानि नहीं पहुँचा सकता था। 1 व्यवहारभाष्य. 5,27,28. / जिनप्रभ . विविध-कल्पसूत्र. संपा : जिनविजय. 1934. शान्तिनिकेतन. पृ17-18 . 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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