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________________ अध्याय 7 ] पूर्व भारत लोग स्वर्गपुरी कहते हैं) के मुखभाग पर निर्मित समर्पणात्मक शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस तल का निर्माण खारवेल की पटरानी की दानशीलता के कारण हुआ था। इस गुफा के निचले तल (जिसे स्थानीय लोग मंचपुरी कहते हैं) की कोठरियों में से दो महाराज कुदेप (या वक्रदेव) और राजकुमार वडुख (उवडुख) के द्वारा समर्पित की गयी थीं। कुदेप खारवेल का उत्तराधिकारी रहा प्रतीत होता है । सामान्यतः गुफाओं का उत्खनन शीर्षभाग से प्रारंभ हुआ है, ऊपरी तल पर खारवेल का समर्पणात्मक शिलालेख निचले तल से पहले का प्रतीत होता है। यद्यपि अधिकांश गुफाओं का उत्खनन महामेघवाहन शासकों के राज्यकाल (प्रथम शती ई० पू० और प्रथम शती ई०) में हुआ था, कुछ का निर्माण उनसे भी पहले हुआ होगा । इस काल की एक भी गुफा मंदिर के रूप में नहीं बनायी गयी। सभी गुफाओं का निर्माण जैन मुनियों के लिए विहारों के रूप में किया गया है। यह तथ्य कि गुफा-कक्षों की प्रायोजना विहारों के रूप में हुई थी, इस बात से प्रमाणित होता है कि पृष्ठभाग में इनके फर्श का प्रारंभ ढलान से होता है और फिर एक ओर की भित्ति से दूसरी ओर की भित्ति तक बढ़ता जाता है ताकि वह लगातार तकिये का काम दे सके । बहुत समय पश्चात् इनमें से कुछ आवासीय कक्ष प्रस्तर-शिल्पांकित तीर्थंकर-मूर्तियों तथा कुछ अन्य लघ परिवर्तनों और परिवर्धनों के साथ मंदिरों के रूप में परिवर्तित कर दिये गये । इन विहारों का निर्माण किसी सुव्यवस्थित तथा योजनाबद्ध रूपरेखा (रेखाचित्र ३) के अनुसार नहीं हुआ । उनका निर्माण विभिन्न ऊँचाइयों पर किया गया। चट्टान की रूपरेखा का अनुसरण कर तथा विभिन्न कक्षों को एक दूसरे से संबद्ध करने के लिए आवश्यकतानुसार चट्टान में ही सीढ़ियाँ काटकर शिल्पकारों ने श्रम और धन दोनों की ही बचत की थी। गुफाओं के ऊपर भार कम करने के विचार से उनकी एक इच्छा यह भी रही होगी कि खुदाई शिलाखण्ड के ऊपरी भाग के समीप की जाये, क्योंकि इस पहाड़ी का बलुआ पत्थर जल्दी टूट जानेवाला पत्थर है। अपने आत्मनिग्रह के लिए विख्यात जैन मुनियों के निवास के लिए निर्मित इन गुफाओं में सुख-सुविधाएं बहुत ही कम थीं। उदयगिरि पहाड़ी की अधिकांश गुफाओं, जिनमें विशेष रूप से बड़ी रानीगुम्फा (गुफा १, चित्र २५) भी सम्मिलित है, की ऊँचाई इतनी कम है कि कोई व्यक्ति उनमें सीधा खड़ा भी नहीं हो सकता । शेष गुफाएँ मनुष्य की ऊंचाई से थोड़ी ही बड़ी हैं। कुछ गुफाएँ इतनी संकरी हैं कि कोई भी व्यक्ति उनमें पैर नहीं पसार सकता। प्रवेशद्वार निश्चय ही बहुत छोटे हैं और इन कोठरियों में प्रवेश करने के लिए लगभग रेंगना ही पड़ता है । कोठरियों में देवकुलिकाएँ नहीं बनायी गयी थीं। धर्मशास्त्र और नितांत आवश्यक वस्तुएँ रखने के लिए बरामदे की पार्श्व भित्तियों में ही शिला-फलक उत्कीर्ण किये गये हैं। कोठरियों का अंतरिम भाग अत्यधिक सादा है। किन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों पर उनके मुखभाग एवं बरामदों की छतों को सहारा देनेवाले टोड़ों को शिल्पांकन तथा मूर्तियों से सजाया गया है (चित्र ३३) । 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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