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अध्याय 6 ]
मथुरा
पार्श्वनाथ को छोड़ कर जिनके शीर्ष पर सर्प के फणोंवाला एक छत्र अंकित रहता है, और ऋषभनाथ को छोड़कर, जिनकी केशराशि उनके स्कंधों पर लहराती है, विभिन्न तीर्थंकरों की पृथक्-पृथक पहचान करना संभव नहीं है । इन मूर्तियों के, जो सामान्यत: वस्त्रहीन हैं, वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित है। भामण्डल वृत्ताकार है, जिसका किनारा कुछ मूर्तियों में सीप की कोर के समान उत्कीर्ण है। ये मतियाँ ध्यान-मुद्रा (चित्र १७) पद्मासन में अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित हैं। अनेक मूर्तियों में मुण्डित शीर्ष दिखाये गये हैं, जब कि अन्य अनेक मूर्तियों में केश हैं, जो छोटे और कुण्डलित रूप में धुंघराले हैं अथवा शीर्ष के चारों ओर नवचंद्राकार घंघरों के रूप में उत्कीर्ण हैं। ऋषभनाथ की मूर्तियों में उलझी हुई लटे पीछे की ओर बिखरी हुई हैं। सामान्यतः उष्णीष नहीं है। पादपीठ के अग्रभाग पर कहीं-कहीं धर्म-चक्र उत्कीर्ण है। परिचय-चिह्नों के अभाव में और चौबीस तीर्थकरों की मूर्तियों के एक साथ पंक्तिबद्ध रखे जाने के कारण, यह ज्ञात नहीं किया जा सकता कि इस युग में चौबीस तीर्थंकरों की कल्पना कर ली गयी थी और उसे मूर्त रूप प्रदान कर दिया गया था अथवा नहीं, यद्यपि इसमें कोई संदेह नहीं कि कम से कम सात तीर्थंकरों का आविर्भाव हो चुका था। अनेकों चौमुख मूर्तियों की प्राप्ति से सिद्ध होता है कि तीर्थंकरों में चार मथुरा के जैन समुदाय द्वारा विशेष रूप से परम पावन तथा पूज्य मान लिये गये थे। ऐसी मूर्तियों को समर्पणात्मक शिलालेखों में प्रतिमा सर्वतोभद्रिका' कहा गया है (परवर्ती कालों में यह 'चौमुख-प्रतिमा' के नाम से विख्यात थी), जिनमें एक प्रतिमा वर्ष ५ की है, जो कि अनुमानतः कनिष्कशासन का वर्ष है । इस प्रकार की आकर्षक प्रतिमाओं में (चित्र १८) एक प्रस्तरखण्ड के चारों ओर एक-एक तीर्थंकर की मूर्ति बनी होती है। इस प्रकार की अधिकांश प्रतिमाओं में दो ओर बनी मूर्तियों को सरलतापूर्वक पहचाना जा सकता है कि वे ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ की हैं, जो क्रमशः लटों और सर्पफणों से पृथक्-पृथक् पहचान लिये जाते हैं। शेष दो मूर्तियों में से एक निश्चय ही महावीर की है और दूसरी नेमिनाथ की हो सकती है क्योंकि कृष्ण और बलराम का चचेरा भाई होने के कारण नेमिनाथ का मथरा में विशेष सम्मान किया जाता था । शीर्ष पर छत्र-यक्त ये सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं संभवत: मुख्य स्तूप की पावन परिसीमानों के भीतर खुले स्थान में प्रतिष्ठित की जाती थीं। यहाँ एक शिलापट्ट का उल्लेख किया जा सकता है जिसपर स्तूपों का वर्णन करते समय विचार किया जा चुका है और जिसपर वर्ष ६६ का एक समर्पणात्मक शिलालेख अंकित है । इस स्तूप के दो पक्षों पर तीर्थंकरों की चार पद्मासन मूर्तियाँ, प्रत्येक ओर दो-दो, शिल्पांकित हैं। एक अोर के ऊपरी भाग में एक मूर्ति पार्श्वनाथ की है। संभव है कि यह फलक चार मतियों की प्रतिष्ठापना का विचार अभिव्यक्त करता हो, जो या तो स्तूप की चार प्रमुख
1 उपलब्ध शिलालेखों में वर्धमान-महावीर, ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) और सम्भवनाथ के नामों
का उल्लेख है. शान्तिनाथ का नाम बूलर ने एक समर्पणात्मक शिलालेख में संदेहपूर्वक पढ़ा है. (एपिग्राफ़िया इण्डिका.1; 383.), जबकि वाजपेयी ने एक शिलालेख में, जो वर्ष 79 (एपिग्राफ़िया इण्डिका. 25 204)
या 49 का है (ल्यूडर्स, पूर्वोक्त, क्रमांक 47). नन्द्यावर्त के स्थान पर मुनिसुव्रत पढ़ा है . 2 जर्नल प्रॉफ द यू पी हिस्टॉरिकल सोसाइटी. 23; 1950; 36.
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