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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई० [ भाग 2 इसपर अंकित शिलालेख, जिसमें वारांगना वासु द्वारा किये गये विभिन्न समर्पणों का उल्लेख है, (उपर्युक्त, पृष्ठ ५४) पुरालिपिशास्त्रीय दृष्टि से कनिष्क-पूर्व काल का कहा जा सकता है। पूर्वकथित स्तूप की तुलना में इसका विशाल बेलनाकार शिखर स्पष्ट रूप से इतना ऊँचा है कि इससे स्तूप कुछ-कुछ मीनार जैसा दिखाई देता है। इसकी दो तलवेदी हैं, जिनके चारों ओर उत्कीर्ण वेदिकाएँ हैं। अर्द्धवृत्ताकार शिखर के शीर्षभाग पर एक वर्गाकार द्वि-दण्डीय वेदिका है, जिसके केन्द्र में ऊपर की ओर एक छत्र शोभायमान है और उसपर मालाएँ लटक रही है। इस स्तूप की एक नवीनता इसकी ऊँची पीठिका है, जो अनुमानतः वर्गाकार है। इस पीठिका के ऊपर निर्मित तलवेदी प्रदक्षिणा-पथ के रूप में प्रयुक्त होती थी। इसके चारों ओर प्रवेशद्वार (तोरण) युक्त एक त्रि-दण्डीय वेदिका है। भूमितल से तलवेदी तक पहुँचने के लिए प्रवेशद्वार के ठीक सामने आठ सीढ़ियोंवाला एक वेदिकायुक्त सोपान है। पीठिका के अग्रभाग पर मकर-तोरणों की-सी प्राकृति के अर्द्धवृत्ताकार आले बने हुए हैं, जिनमें पादपीठों पर खड्गासन मूर्तियाँ अंकित हैं (दक्षिण पार्श्व में पुरुष और वाम पाव में नारी-मूर्तियाँ हैं) । प्रचुरता से उत्कीर्ण इस तोरण का भर्हत और सांची के तोरणों के साथ रचनात्मक सादृश्य है। इसमें दो आयताकार उत्कीर्ण स्तंभ हैं, जो तीन अनुप्रस्थ वक्राकार सरदलों को, जिनके सिरे मकरों की आकृति कोहैं, अवलंब दिये हुए हैं। सरदलों के बीच दो अवलंबक प्रस्तर-खण्ड हैं, जबकि निचले सरदल के दो मुड़े हुए सिरे दो सिंहाकार टोड़ों पर आधारित हैं। सबसे ऊपर के सरदल पर मुकुट की भाँति स्थित मधुमालती लता का एक कला-प्रतीक अंकित है, जिसके दोनों पावों में एक त्रि-रत्न या (नन्दिपद) प्रतीक है, जैसा भर्हत के स्तूप के पूर्वी तोरण में हैं। निचले सरदल के केन्द्रीय भाग से एक कमल-गुच्छ लटका हुआ है, जिसके साथ पुष्पमालाएं भी हैं । तोरण का शिल्पांकन तत्कालीन शैली पर आधारित है, यह तथ्य आगे वर्णित विच्छिन्न खण्डों की खोज से सिद्ध हो जाता है (पृष्ठ ६३)। इस स्तूप की एक प्रमुख विशेषता इसके दो ऊँचे-ऊँचे स्तंभ हैं। प्रत्येक स्तंभ सामने के दोनों कोनों पर स्थित है । (यह शिल्पांकन जिस स्तूप की लघु अनुकृति है, संभवतः उस स्तूप के शेष दो कोनों पर भी दो और स्तंभ रहे होंगे)। इन स्तूपों का घट-आधार एक पिरामिड जैसी आकृति के सोपानयुक्त पादपीठ पर टिका हुआ है। स्तंभ का मध्यभाग दायें पार्श्व में वृत्ताकार, और बायें पार्श्व में अष्टकोणीय है, उसके ऊपर एक घट और घट के ऊपर शयन-मुद्रा में पंखधारी सिंहयुगल उत्कीर्ण हैं। इन सिंहों के ऊपर एक चौड़ी-चपटी कुण्डलित निर्मित है, जो स्तंभ-शीर्ष पर मुकुट की तरह स्थित आकृति को थामे हुए है । दायें पार्श्व में उसकी रचना एक चक्र की तथा बायें पार्श्व में अगले पैरों को खड़ा करके बैठे हुए सिंह की है। ये स्तंभ पीठिका पर बने स्तूप की ऊँचाई के बराबर हैं । कंकाली-टीले में इस प्रकार के अनेक स्तंभ मिले हैं। एक अन्य खण्डित पायाग-पट (रा० सं० ल०, जे-२५५) पर एक स्तूप के शिल्पांकन (चित्र २ ख) का निचला भाग सुरक्षित है। स्तूप के उपलब्ध भाग का सामान्य विन्यास और प्रमुख विशेषताएं पूर्वोक्त स्तूप (पु० सं० म०, क्यू-२) के समान ही हैं, किन्तु उसकी तुलना में इसकी पीठिका 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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