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[८८] प्रशस्ति
(शिखरिणी) 'अहो! आत्मारामी, मुनिवर लघुराज प्रभुश्री, कृपाळुनी आज्ञा, उर धरी करी व्यक्त शिवश्री; तमे उद्धार्या आ दुषम कलिकाले जन बहु, कृपासिंधु वंदूं, स्वरूप-अनुभूति-स्थिति चहुं. १ २ कृपालुनी आज्ञा, मुज उर विषे निश्चल रहो, गुरु ज्ञानी योगे, भवजल तणो अंत झट हो, सदा सेवी एना विमल वचनामृत ऋतने, सदानंदे मग्न भजुं हुं सहजात्मस्वरूपने. २
(वसंततिलका) ३ श्री राजचंद्र गुरुवर्यतणा प्रतापे,
अध्यात्मज्ञान प्रगटावी प्रभुश्री आपे; वर्षावी बोधतणी अमृतवृष्टि आ जे, थाओ मुमुक्षुजनने शिवसौख्य काजे. ३ ४जे भव्य आ जीवन ज्ञानीतणं सुणीने, संभाळशे सहज-आत्मस्वरूप-श्रीने; संसार-सागर अपार तरी जशे ते, शांति समाधि सुख शाश्वत पामशे ते. ४
१. अहो! आत्मामें रमण करनेवाले मुनिवर लघुराज प्रभुश्री! आपने कृपालुदेवकी आज्ञा हृदयमें धारण कर शिवश्रीको प्रकट किया, इस दुषम कलिकालमें बहुत जीवोंका उद्धार किया। ऐसे आप कृपासिंधुको नमस्कार कर मैं स्वरूपानुभूतिमें स्थिति चाहता हूँ। .
२. कृपालुदेवकी आज्ञा मेरे हृदयमें निश्चल रहो, ज्ञानी गुरुके योगसे मेरे भवसमुद्रका शीघ्र ही अंत हो तथा इनके विमल वचनामृतको आत्मसात् कर सदानंदमें मग्न होकर अपने सहजात्मस्वरूपको भनूँ ऐसी मैं भावना करता हूँ।
३. श्री राजचंद्र गुरुवरके प्रतापसे आप प्रभुश्रीने अध्यात्मज्ञानको प्रकट कर बोधकी जो अमृतवृष्टि की है वह मुमुक्षुजनोंको शिवसौख्यकी प्राप्तिमें कारणभूत होओ।
४. जो भव्य जीव यह ज्ञानीका जीवनवृत्त सुनकर अपने सहजात्मस्वरूप-लक्ष्मीको सँभालेगा वह अपार संसारसागरको तिर जायेगा और शाश्वत शांति-समाधिसुखको संप्राप्त होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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