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________________ [८१] इस आश्रम तथा मुमुक्षुवर्गपरका परम उपकार बारंबार स्मृतिमें आने योग्य है। उस पावन आत्माकी कमी आश्रमको सदाके लिए रहेगी। परम उपकारी श्री लघुराज स्वामीकी वृद्धावस्थामें परमकृपालुदेवके समागमीके रूपमें वे सहायक थे, यह याद करने पर विशेष खेद होता है। परमकृपालुदेव उस पवित्र आत्माको परम शान्ति प्रदान करें यही प्रार्थना है।" __ जैसे भी हो अशरीरीरूपसे आत्मभावना करते हुए उदयमें आयी हुई दुःखस्थिति भोगकर, शरीरका भान भूलकर, जगत है ही नहीं ऐसा दृढ़ निश्चय कर सगे, कुटुंबी, स्त्री, मित्र सब स्वार्थी संबंध है ऐसा निश्चय कर, संपूर्ण जगत स्त्रीरूप, पुत्ररूप या भाईरूपसे अनन्तबार हो चुका है; किसपर स्त्रीभाव, पुत्रभाव या भ्रातृभाव करूँ? ऐसा विशेष विशेष दृढ़त्व कर सर्व जीवोंके प्रति प्रतिसमय वृत्ति इसी उपयोगमें रखकर प्रभु-सहजात्मस्वरूप प्रभु-का ध्यान अहोरात्रि करते रहें तो आपका आत्महित होगा और सर्व कर्मका उपशम होकर अथवा क्षय होकर परम शांतिका अनुभव करेंगे ऐसा मेरी समझमें आता है और सर्वज्ञानी, सद्गुरु आदिको भी वैसा ही भासित हुआ है। और इसीसे वे इस अपार संसारसे पार हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। सब ज्ञानी पुरुष इसी मार्गसे तिरे हैं और हमें इसी मार्गसे तिरना है। जिसे पवित्र ज्ञानी पुरुषका दर्शन हुआ हो अथवा तो उनका बोध प्राप्त हुआ हो उन जीवोंको तो सर्व मोहभावका अभाव कर, सर्व संयोगी भावमें उदासीन हो, मानो जगत है ही नहीं ऐसे भावसे प्रवृत्ति करनी चाहिये। किसी व्यावहारिक प्रसंगमें बोलना पड़े तो सभीके मनका एक ही बार समाधान करके हमें अपने मूल शुद्ध चैतन्यस्वरूपके ध्यानमें लग जाना चाहिए। सर्व जगत स्वप्नके समान है ऐसा माने और देखा करें। ऐसी देह पूर्वमें अनन्तबार धारण की है। उस समय भ्रान्तिसे परको अपना मानकर, संयोग भावमें तन्मय होकर मैंने अनन्त संसार उत्पन्न किया है ऐसा जानकर, सर्व अन्य भावसे रहित आत्मस्वरूप है ऐसा चिंतन करें। आत्मा असंग, शुद्ध चैतन्यस्वरूप, सर्व अन्य भावका ज्ञाता-द्रष्टा-साक्षी है। किसी कालमें परद्रव्य अपने नहीं हुए हैं। भ्रान्तिसे मैंने अपने माने थे। अब सद्गुरुके आश्रयसे परको पर और मेरा स्वरूप सर्व परद्रव्यसे भिन्न और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्यस्वरूप है-यों अनन्तचतुष्टयमय शुद्ध चैतन्यस्वरूपका अखण्ड ध्यान रखें। परवृत्तिमें न पड़ें या अन्य संकल्प-विकल्प न करें। यदि संकल्प-विकल्प उठे तो उन्हें तुरंत ही शांत कर दें और उपरोक्त सहजात्मस्वरूपके ध्यानमें लग जावें। ____ संसार भ्रान्तिस्वरूप है। मृगजलके समान दिखावा मात्र है। इस जीवने अनन्त अनन्त भव चार गति और चौरासी लाख जीवयोनिमें परिभ्रमण किया है। इसने जो-जो देह धारण किये उन सबमें तदाकार होकर अपनापन मान तीव्र राग किया है। परंतु वे शरीर अपने नहीं हो सके। वैसे ही यह शरीर भी अपना है ही नहीं। यह जीव अनादिकालसे कर्मवशात् अकेला आया है, अकेला जायेगा और अपने किये हुए कर्मोंका फल स्वयं अकेला भोगेगा। फिर भी अन्य संयोगोंमें अर्थात स्त्री पुत्रादिकमें अपनापन मानकर तीव्र राग करके अनन्त संसार उत्पन्न किया है तथा भविष्यमें भोगने पड़ें ऐसे अशुभ कर्म उस निमित्तसे उत्पन्न किये हैं। अब इस देह द्वारा निरंतर आत्मभावना करनी चाहिये। अनित्यादि बारह भावनाओंका चिन्तवन विशेष रखना चाहिए। यदि आप स्वयं पढ़ सके तो अच्छी बात है, अन्यथा दूसरेसे वैसी पुस्तक पढ़वावें कि जिसमें बारह भावनाका स्वरूप हो। फिर भी किसी पढ़नेवालेका संयोग प्राप्त न हो सके और स्वयंसे भी पढ़े जानेकी स्थिति न हो तो अन्य कहीं भी वृत्तिको न रोककर मंत्रका जाप रातदिन करते रहना चाहिये। और, वृत्तिको मंत्रमें-जापमें स्थिर करके सब बात भूलकर, सब कुछ स्वप्नवत् समझकर उस मंत्रमें ही निरतंर रहना चाहिए। सर्व जीव बोधबीजको प्राप्त हो यही आशिष । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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