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________________ [ ५] निवेदन (गुजराती प्रथमावृत्ति) "प्रभु-प्रभुता संभारता, गातां करतां गुणग्राम रे; सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे. मुनि० प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे; तत्त्वरमण-एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे. मुनि०" "लोहधातु कंचन हुवे रे लाल, पारस-फरसन पामी रे व्हालेसर; प्रगटे अध्यातम दशा रे लाल, व्यक्तगुणी गुणग्राम रे व्हालेसर; तुज दरिसण मुज वालहुं रे लाल, दरिसण शुद्ध पवित्त रे व्हालेसर." -श्रीमद् देवचन्द्र परमकृपालु परम तत्त्वज्ञ अध्यात्ममूर्ति श्रीमद् राजचंद्रसे आत्मप्रतीति प्राप्त कर परमात्मदर्शनको प्राप्त करनेवाले तथा मोक्षार्थी भव्य जीवोंको अपनी सहज करुणा द्वारा सद्बोधवृष्टिसे आत्महितके प्रति मोड़कर इस दुर्लभ मनुष्यभवको सफल बनानेमें सर्वोत्कृष्ट उपकारी श्रीमद् लघुराज स्वामी (प्रभुश्रीजी) का उपदेश संग्रह 'श्रीमद् लघुराज शताब्दी स्मारक ग्रन्थ' के रूपमें प्रकाशित हो ऐसी अनेक आत्मबन्धुओंकी इच्छा थी। तदनुसार यह ग्रन्थ यथासम्भव शीघ्र प्रकाशित हो और इस आश्विन वदी १ के दिन श्रीमद् लघुराज स्वामी (प्रभुश्रीजी) के जन्मजयन्ति शताब्दी महोत्सवके प्रसंगपर मुमुक्षु बन्धुओंको इस ग्रन्थका प्रसाद अमूल्य भेंटके रूपमें प्राप्त हो ऐसी इच्छासे इसके सम्पादनका कार्य प्रारम्भ किया गया था। सन्तशिरोमणि प्रभुश्रीजीकी सेवामें सर्वार्पणभावसे जीवन समर्पण कर परम कृपालुदेवकी आज्ञाका आराधन करनेवाले तथा मुमुक्षुओंको परमकृपालुदेवकी आज्ञा-आराधनके प्रति मोड़नेमें प्रयत्नशील रहकर सेवा अर्पण करनेवाले अध्यात्मप्रेमी सद्गत पू. श्री ब्रह्मचारीजीने इस ग्रन्थके सम्पादन-कार्यमें बहुत उल्लास और तन्मयतासे अपनी सर्व शक्ति और समयका भोग देकर परिश्रम किया है, अतः वे ही इस ग्रन्थ-प्रकाशनके लिए सर्व यशके अधिकारी हैं। उनके मार्गदर्शनके अनुसार इस ग्रन्थका सम्पादन हुआ है। फलस्वरूप आज यह ग्रन्थ मुमुक्षुओंको सादर अर्पण करते हुए आनन्द होता है; परन्तु साथ ही बहुत दुःखकी बात है कि यह ग्रन्थ तैयार होकर मुमुक्षुओंके हाथमें आये उसके पूर्व ही उन पवित्र आत्माका देहोत्सर्ग हो गया। वीतरागश्रुत-प्रकाशक इस आश्रमके साहित्य प्रकाशनमें उन्होंने जीवनपर्यन्त जो सर्वोत्तम सेवा प्रदान की है उसके लिए उन्हें यहाँ धन्यवादपूर्वक स्मरणांजलि अर्पण करना उपयुक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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