SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [५८] आ पड़ा। कुंभनाथ महादेवमें श्रावण सुदी पूर्णिमाको ब्राह्मण लोग जनेऊ बदलने आये, उन्होंने जैन मुनियोंको वहाँ चातुर्मास करते देखा तो स्वाभाविक धर्मद्वेषसे प्रेरित होकर जिसके आधिपत्यमें महादेवकी कंसाराकी धर्मशाला थी उसके कान भर दिये, जिससे मकान बदलना अनिवार्य हो गया। उस समय शक्तिसम्पन्न मुमुक्षु उपस्थित थे अतः उन्होंने ढेंढाका बंगला नानासाहबसे किरायेपर लिया और कुंभनाथमें जैसा कार्यक्रम चलता था वैसा ही वहाँ आरंभ हो गया। एक पत्रमें श्री रत्नराज लिखते हैं-“पूज्य रणछोड़भाई पवित्र जीवात्मा हैं और व्यवहारकुशल, दत्तवाचक तथा न्यायसंयत पुरुष हैं; अतः उनकी विनतीपर आपको विशेष ध्यान देने जैसा है। आसपासके संयोग तो सदा एक समान नहीं रहते..." दूसरे पत्रमें लिखते हैं-"प्रभु! आप सत्पुरुषोंका भाग्य महान है! इस ओर उमरदशीके महन्त आदि आपकी सेवा करनेको तत्पर हैं...यद्यपि आप क्षमाशुर निःस्पृह महात्मा हैं...आपका वात्सल्यभाव आपको स्वतंत्र व्यवहार करनेसे विलम्बमें डाल देता है...अर्थात्...यों कहना...पड़ता है कि दयाको छोड़े बिना भी छुटकारा कहाँ है? अभी अभी, खंभातकी पाठशालाको प्रोत्साहन मिले ऐसे उपाय आरंभ किये गये हैं, ऐसा लगता है।...आपश्रीको भी वे वहाँ...खंभातकी पाठशालामें रुकनेको विनतीके रूपमें विवश करें, अर्थात् आपको अनुकूलता बताकर उस ओर रोक रखनेका कदाचित् प्रयत्न करें। फिर हमें आपके इस ओर बिराजनेकी सुविधा...करनी है वह कार्यकारी होगी या नहीं ऐसा संदेह होता है... सं.१९७०, आश्विन वदी १" चातुर्मास पूरा होने पर कोई निवृत्तिक्षेत्र ढूँढकर असंगभावसे रहा जा सके ऐसी श्री लघुराज स्वामीकी भावना थी। श्री रत्नराजको भी यात्रामें या ऐसे प्रसंगमें श्री लघुराज स्वामीके साथ विहार करनेकी भावना थी। फिर भी नडियादकी ओर विहार हो सके ऐसी शारीरिक स्वस्थता न होनेसे उस विचारको स्थगित रखनेका रत्नराजने सूचित किया। श्री लघुराज स्वामीने चातुर्मास पूरा होने पर उमरेठकी ओर विहार किया। वहाँसे वे रत्नराजको लिखते हैं "मुझे विहार करना सम्भव नहीं लगता । घुटनोंमें वायुका प्रकोप स्थायी है। अर्शके दर्दके साथ पीड़ा होती है। इसलिए अब तो धीरेधीरे उत्तरसंडा होकर नडियाद क्षेत्र जानेका विचार मनमें आता है..." इसी बीच श्री रत्नराजकी कुछ सद्गृहस्थोंके साथ धर्मचर्चा हुई थी। वह उन्होंने सं.१९७१के मार्गशीर्ष कृष्ण ६ के पत्रमें बतायी है, “उस वार्तालापसे इस अनुमानपर आना सम्भव है कि अब किसी एक व्यक्तिको अगुवा बनाये बिना वर्तमान समुदायका सद्व्यवहार नहीं निभ सकेगा। किन्तु प्रश्न यह है कि ऐसा उत्तरदायित्व उठानेका मुख्य अधिकारी कौन बने? और दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि किसे बनाया जाय? तीसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि आजतक समुदाय, निर्नायक सैन्यकी भाँति चलता रहा है, वह ऐसे मुख्य अधिकारीकी आज्ञाका आत्मार्थके लिए आराधन करेगा क्या?...ऐसे मुख्य अधिकारीकी स्थापनाकी इच्छा अनुमोदनीय है, तथापि वह कैसे भावसे, कैसे आशय या उद्देश्यसे उत्पन्न हुई होगी यह भी विचारणीय है...वैसे हमें तो श्री परमकृपालुदेवकी परोक्ष आज्ञानुसार अपना आत्मार्थ सिद्ध करके चले जाना है, इस विचारको गौण नहीं करते हुए तथारूप सत्पुरुषकी सद्भाग्यसे संप्राप्ति हो जाय और उनकी प्रत्यक्ष आज्ञाका आराधन करें अथवा उपासना करें इसमें त्रिकालमें भी कोई बंधन नहीं है, क्योंकि भूत, भविष्यत्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy