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________________ [५६] पू०...भाई आदि वहाँ आश्रम बनानेका तथा उनके द्वारा कही गयी रकम देनेका भी बिलकुल इन्कार कर रहे हैं।...आप सरल स्वभावी, भद्रिक परिणामी हैं जिससे जिस किसीके साथ आप दाक्षिण्यतामें सहजभावसे जो बोल जाते हैं उसका स्वार्थी लोग दुरुपयोग कर कहते हैं कि स्वामीजीको तो आश्रमकी कुछ आवश्यकता नहीं है, तब हमें उपाधि खड़ी करके क्या करना है? यों कहकर वे बातको उड़ा देते हैं, और अपना आंतरिक आशय आपके नामसे प्रसिद्ध करते हैं...अंतमें एक विचारपर स्थिर होना आपके आधीन है। बाकी सब आप सद्गुरुके पुण्य प्रतापसे तैयार है।" इस पत्रके उत्तरमें स्वामीजीने वैशाख सुदी ७, सं.१९७०के पत्रमें अपने हाथसे लिखा है-“पर हे प्रभु! हमारा हृदय कोमल है यह आप जानते हैं। आपसे कुछ अंतर नहीं है।...आप जो करेंगे उसमें मेरी सम्मति है, कुछ ना नहीं है। फिर कोई आपको हमारा नाम लेकर कहें उसमें मेरा क्या दोष है?...यहाँके मुमुक्षुभाइयोंकी विषम दृष्टिको देखकर बहुत विचार होता है कि क्या किया जाय?...हम, हमारे विचारके अनुसार जो प्रारब्ध उदयमें आता है, उस प्रकारसे यहाँ सब आ मिलता है-द्रष्टा बनकर देखते रहेंगे...इच्छानुसार कुछ होता नहीं है। हरिइच्छासे जो हो वह अच्छा है...यहाँ तो कोई सत्संग चाहिए, और तो सब जगह फूट...आपके समागमकी बहुत आवश्यकता है। पर किसी अन्तरायके कारण हरिइच्छा ऐसी ही होगी...आप तो सब जानते हैं।" श्री लघुराज स्वामी बाह्य विकट संयोगोंमें कैसी अदीनतासे, निःस्पृहतासे रहे हैं यह बतानेके लिए ही यह नरोडा आश्रमका इतिहास लिखा है । परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्रने एक पत्रमें लिखा है, "...दीनता नहीं आने देना, 'क्या होगा' ऐसा विचार नहीं करना...थोड़ा भी भय नहीं रखना। उपाधिके लिए भविष्यकी एक क्षणकी भी चिन्ता नहीं करना...तभी परमभक्ति पानेका फल है, तभी हमारा आपका संग हुआ योग्य है।" यह और ऐसे ही अन्य विचारोंसे श्री स्वामीजीको दीनता या पराधीनता अच्छी नहीं लगती थी। श्री मोहनलालजी लोच आदि कारणसे उमरदशी गये थे। वहाँसे श्री स्वामीजीको पत्र लिखते हैं-"मैं सिद्धपुरसे...आया था उसी दिन पालनपुरसे दरबार साहब महाराज श्री रत्नराजस्वामीजीके दर्शनार्थ पधारे थे और पालनपुर ले जानेके लिए पगड़ी उतारकर बहुत अन्तःकरणके प्रेमसे नम्र और मृदु विनती कर गये हैं। दरबारका मन रखनेके लिए उनका एक बार वहाँ पधारना सम्भव फिर श्री रत्नराज कुछ महीने पालनपुर रहे थे। नवाबने उनसे चातुर्मासकी विनती भी की, किन्तु जलवायु अनुकूल नहीं होनेसे वहाँ नहीं रहे। कुछ सेवाका अवसर देनेकी दरबारने विनती की थी, तब नरोडामें महात्मा श्री लघुराज आदि संतोंके लिए आश्रमकी व्यवस्था हो रही है उसमें कुछ अच्छी रकम देनेकी सूचना श्री रत्नराजने की थी। अतः एक गिन्नियोंकी थैली देकर लालभाई साहबको नडियाद श्री लघुराज स्वामीके पास नवाबश्रीने भेजा था। स्वामीजीने उसे स्वीकार नहीं किया । तब वह थैली श्री रत्नराजको सौंपी गयी थी। उस रकमसे श्री सिद्धपुरमें 'राजमंदिर' नामक संस्थाका आरंभ हुआ। ___ लगभग बीस वर्ष बाद एक संन्यासी श्रीमद् राजचंद्र आश्रम (अगास) में श्री स्वामीजीके पास आये। वे श्री रत्नराजके समीप रहकर आये थे। वे कहते थे कि “पालनपुरके नवाबने लड़ाईके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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