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________________ ४८० उपदेशामृत १७. आत्मासे आत्माको पहचानना है। जैसा सिद्धका आत्मा है वैसा ही मेरा है। १८. 'सहजात्मस्वरूप' यह तो चौदह पूर्वका सार है। १९. जगतमें क्या है? जड़ और चेतन दो हैं। इनमें जड़ नहीं जानता। जानता है वह चेतन। २०. जड़ कभी चेतन बनेगा? चेतन कभी जड़ बनेगा? ये दोनों भिन्न हैं या नहीं? तब फिर अब अधिक क्या कहें? २१. मेरे पड़ौसमें कौन है? शरीर है। उसका और मेरा कोई संबंध नहीं है। वह मुझसे भिन्न है। २२. नामसे आत्मा नहीं पहचाना जायेगा। अंतर्दृष्टि करें। चर्मचक्षुसे तो आत्मा नहीं दीखेगा। २३. 'अंतर्वृत्ति रखनेसे अक्षयपद प्राप्त होता है।' २४. भाव ही आत्मा है, परिणाम ही आत्मा है। २५. जीव नरकमें जानेवाला हो पर थोड़ासा भाव कर ले तो देवगतिमें चला जाये। (श्री पार्श्वनाथने जलते हुए साँपको बचाकर धरणेन्द्र बनाया।) २६. मन अनावश्यक विकल्प करता हो तो उसे झूठ समझकर निकाल फैंके। २७. शरीर मेरा, भाई मेरा, बाप मेरा, चाचा मेरा, घर मेरा-ऐसा कहनेसे, माननेसे गलेमें फाँसी लगेगी। २८. मोक्ष क्या है? सबसे मुक्त होना मोक्ष है। छोड़नेवाला कितना भाग्यशाली है! २९. सबका स्नानसूतक कर, क्रियाकर्म निपटाकर चले जायें, मर मिटनेको तैयार हो जायें। ३०. 'तलवारकी धार पर चलना है, सत् संग्राममें लड़ना है।' श्रीमद् लघुराजस्वामी-प्रभुश्री उपदेशामृत समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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