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________________ ४५४ उपदेशामृत किये हों तो दुःख आयेगा क्या? भले ही मन वचन कायाके योग रहें, पर जीव उन्हें ग्रहण ही न करे तो वे क्या करेंगे? बंधन किस प्रकार होगा? जहाँ दीपक हो वहाँ अँधेरा कैसे रह सकता है? आपने आत्माको देखा नहीं है। पर भेदीने देखा है-भेदका भेद । भाव उसी पर करें। 'धिंग धणी माथे किया' फिर भय किसका? परमकृपालुदेवने 'समाधिशतक' दिया, उसमें अपने हाथसे लिख दिया था 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे।' इतना मिल गया तो सब मिल गया-भाव कहाँ रखना चाहिये वह मिल गया। इस पत्रमें, देने योग्य सब दे दिया है, गुप्त धन दे दिया है। ता. १०-१०-३५ सब माया है। अनेक गये । सब जानेवाले हैं, सचेत हो जाना है। मायासे छूटनेका प्रयत्न करें, बँधनेका न करें। सब शोकरूप है। "इन तत्त्ववेत्ताओंने संसारसुखकी प्रत्येक सामग्रीको शोकरूप बताया है।" मनुष्यभव दुर्लभ है। तैयार हो जायें। यह नहीं, दृष्टि बदलें। वैराग्यकी बलिहारी है, अमृत है! सत्संगसे सुख है। ये सब संग हैं, आत्मा असंग है। ता. १४-१०-३५ कर्म तो छूट ही रहे हैं। विकल्प द्वारा जीव अन्य नये कर्म बाँधता है, अन्यथा मुक्त ही हो जाता है। कर्मके कारण ही रोग और मरण है। 'आओ' कहनेसे कर्म बढ़ते नहीं और 'जाओ' कहनेसे जाते नहीं। छूटनेका उपाय ‘समभाव' है। कर्मकी गठरियाँ हैं उन्हें जीव 'मेरा मेरा' कहकर पकड़े रखता है। इसीलिये कहा है कि 'तेरी देरीसे देर है।' तू 'मेरा' मानना छोड़ देगा तो कर्म पीछे पड़कर नहीं चिपकेंगे। तू ही उन्हें इकट्ठे करनेके लिये दौड़ता है। __ 'फिकरके फाके भरे, उसका नाम फकीर ।' सब जानेवाला है। 'मेरा' मानेगा तो भी जायेगा, रहेगा नहीं। किसीको कहना नहीं है, पर भाव करने हैं। जो होना हो सो हो। पैसेका मद होता है, सुननेके बाद समझनेका मद होता है, वह नहीं करना चाहिये। जो है सो है। किसीको कहे कि जीवको मार डालो, कोई मार सकेगा क्या? उसे दबा दो तो दबेगा क्या? फिर चिंता किस बातकी? मायाकी गठरी इकट्ठी करता है, फिर 'मेरा मेरा' कर उसमें (मोहाग्निमें) जलता रहता है। ___ ता.१६-१०-३५ सब मिथ्या है। उसे 'मेरा मेरा' मानकर क्यों रोता है? जो दुःखरूप है उसमें सुख कैसे हो सकता है? आत्मामें दुःख है? फिर क्यों डरता है? वेदना आयी हो उसे देखता रह । समकिती तो उसे साता मानता है। वह क्या करता है? मात्र देखा करता है। उसमें क्या आ गया? समझ। समझनेसे ही छुटकारा है। ''ज्ञानीकी सभी प्रवृत्ति सम्यक् होती है' ऐसा क्यों? ज्ञानी जैसा है वैसा ही देखता है। स्त्रियाँ अन्यके घरका विलाप अपने घर लाती हैं और रोती हैं, ऐसे ही सब संसार + मूल गुजराती पाठ ‘ज्ञानीना गम्मा, जेम नाखे तेम सम्मा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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