________________
४४३
उपदेशसंग्रह-५ प्रभुश्री-ज्ञान कैसे हो? मुमुक्षु-सत्पुरुषकी कृपासे। प्रभुश्री-केवलीके पास भी कोरा कैसे रहा गया? मुमुक्षु-दर्पण उलटा रखा, जिससे सन्मुखदृष्टि नहीं हुई।
प्रभुश्री-दृष्टि बदली नहीं । दृष्टि बदली हो तो स्वांग भरनेवालेका वेष समझमें आ जाये, फिर स्वयं नाटकमें सम्मिलित नहीं होगा। आत्मा दिखाई दे तो मोह नहीं रहेगा। बोध सुनकर भाव करे तब परिणमन कुछ भिन्न ही होता है। आत्मा भले ही दिखायी न दे, पर माने कि ज्ञानीने आत्माको देखा है, वैसा ही है यों श्रद्धा रखे। वेष उतार डालना सरल है। मेरे बापके बाप भी थे या नहीं? पर अभी क्या मान्य हुआ है? जो दिखायी देता है वही मान्य हुआ है। वृक्षके नीचे विश्राम करने बैठा तो वृक्षको ही अपना मान लिया।
मुमुक्षु-मिथ्या क्या है? जड़ और चेतन दोनों भिन्न हैं, दोनों सत् है, फिर मिथ्या कैसे कहा? प्रभुश्री–जैसा है वैसा समझना पड़ेगा। ज्ञानीने कहा है
“जड़ ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न;
सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समजाय छे." सुप्रतीतिसे समझमें आना चाहिये। समझमें आने पर परिणमन होता है। समकित कर लेना है। आत्मा दिखायी न देता हो पर उसकी श्रद्धाको समकित कहा है। आत्माकी श्रद्धा होनेके बाद आत्मा दिखायी देगा। परोक्षसे ही प्रत्यक्ष होता है।
ता. ३-९-३४ प्रभुश्री-'आणाए धम्मो, आणाए तवो।' आज्ञा दो प्रकारकी है। निश्चयसे आत्मा ही गुरु है, किन्तु व्यवहारमें भी गुरु बनाना चाहिये । व्यवहारको हटा देनेसे काम नहीं चलेगा। मान्यता, श्रद्धा किसकी करे? कौन करता है? जड़ तो कुछ मान्यता कर नहीं सकता। श्रेणिकने क्या किया? 'चमकमें मोती पिरो ले।' इसका क्या अर्थ है ?
१. मुमुक्षु-अनादिकालसे जीव अंधकारमें ही चल रहा है। अब मनुष्यभव आदि सामग्री मिली है वह बिजलीकी कौंध (चमक) जैसी है, इसमें यदि मोती पिरो लिया गया तो गुमेगा नहीं।
२. मुमुक्षु-मोती क्या? सुई क्या? चमक क्या? १. मुमुक्षु-सत्पुरुषका योग चमक है, भाव ही मोती है। तैयार होकर रहना चाहिये।
प्रभुश्री-भाव करने हैं। जड़ भाव नहीं कर सकता। ज्ञानी तो सागरके समान गंभीर हैं। उन्होंने तो सर्वत्र आत्मा बताया है। क्रोध आत्मा, मान आत्मा, कषाय आत्मा, अज्ञान आत्मा। दुर्लभ सामग्री है। सावधान होने जैसा है। .
ता. १३-११-३४ जैसे दाल और चावल अलग हैं, वैसे ही हमें आत्माको अलग दिखाना है। आत्मा है तो यह सब कुछ है। यह ऐसा शरीर दिखायी देता है वह भी आत्माके कारण ही है, अन्यथा लोग जलाकर
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org