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उपदेशसंग्रह-५ होनेके बाद फँसता नहीं है। अन्यथा गली कूँचेमें घुस जाता है। कहते हैं कि कोई मार्गका जानकार हो तो सीधा पहुंचा जा सकता है। करना क्या है? जगत मिथ्या, आत्मा सत् । मिथ्याको छोड़ना है। जानकार होनेके बाद सब छूट जाता है।
सद्गुरुको अर्पण करनेसे क्या तात्पर्य है ? मिथ्या क्या है, यह समझमें आ जाये तो ममत्व छूट जाता है। फिर आत्माकी श्रद्धा होती है, वही अर्पण है। अतः श्रद्धा करनी चाहिये कि जिससे मायाके स्वरूपमें लिपटा न रहे। मनुष्यभव कैसे सफल हो? सत्की श्रद्धा हो तो। इससे असत्की श्रद्धा छूट जायेगी। विपरीत श्रद्धा हो गयी है वह छूट जायेगी। यह सब किसके द्वारा मानने में आ रहा है? मनके द्वारा। भगवान कहीं दूर नहीं है। प्रार्थना तो उन्हें बुलानेरूप है। अभी जो 'मेरा मेरा' माना जा रहा है, वह फिर नहीं रहेगा। इसीके लिये प्रार्थना आदि हैं। पुरुषार्थ करना चाहिये-सत्पुरुषार्थ । यह वचनामृत है, वह अमृत है। परंतु गुरुगम मिले तो सब ताले खुल जाते हैं। अभिमन्यु छ चक्र जानकारीसे जीत गया, पर अंतिम चक्रकी जानकारी न होनेसे चक्रव्यूहमें फँस गया। सत्संगसे जानकारी होती है।
ता.६-३-३४ प्रभुश्री-गुत्थी उलझी हुई है वह सुलझे तो सुगम है। . मुमुक्षु-गुत्थी कैसे सुलझे?
प्रभुश्री-जीवकी प्रवृत्ति ऐसी है कि जिससे गुत्थी उलझे, इसीसे बंध होता है। उलटेकी अपेक्षा सीधे बल पड़ें तो गुत्थी सुलझ जाती है। विकार और कषायसे बल चढ़ते हैं। शरीरको अच्छा बुरा दिखानेमें रहे तो विपरीत बल चढ़ते हैं, किन्तु विचार कर शरीरको माँस, हड्डी, चमड़ेकी थैलीके रूपमें देखे तो गुत्थी सुलझ जाती है। वह अधिक समय नहीं टिकता। थोड़ा विचार आये, फिर वापस बल उलटा चढ़ने लगता है, अतः पुरुषार्थ करना चाहिये । उलटे पुरुषार्थसे विकार होता है, सुलटे पुरुषार्थसे बल निकल जाते हैं। वह चालू नहीं रहता, अन्यथा बहुत सरल है। अनादिके अभ्यासको छोड़ना चाहिये और सुलटा पुरुषार्थ करना चाहिये।
धर्मके नाम पर उलटी पकड़ हो गयी है, और ऐसा समझ लिया है कि मैं धर्म करता हूँ। हँसिये निगल लिये हैं वे निकलने मुश्किल हैं। धर्मके नाम पर जो उलटी पकड़ हो गयी है, वही अनंतानुबंधी कषाय है।
हमें भी सच्ची मान्यता हुई जिससे सब सुलटा हो गया। हमारा सात पीढ़ीका ढुढियाका धर्म, उसकी पकड़ थी, पर सच्ची मान्यता होनेके बाद वह पकड़ छूट गयी। आत्माको धर्म माना।
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ता. ९-३-३४ प्रभुश्री-ज्ञानीके कथनको मान्य करे तभी मार्ग प्राप्त होता है। मुमुक्षु-सब ज्ञानी करेंगे।
प्रभुश्री-हम भी परमकृपालुदेवको ऐसा ही कहते थे। तब उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ करना पड़ेगा, अपनी मान्यता छोड़नी पड़ेगी। अकेली समझ किस कामकी? परिणमन होना चाहिये । असार
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