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________________ ४२२ उपदेशामृत अंजन लगायें तब मुमुक्षुको अपना भान जाग्रत होता है। ज्ञानी जिस रूपमें हैं, उस रूपमें पहचाना जाय तब स्वयं भी तद्रूप बनता है। परंतु उसके लिये धातुमिलापकी जरूरत है, अर्थात् पूर्ण प्रेमसे, एक रससे उसे ही भजे और यथातथ्य देखे तभी काम बन सकता है। ता. ३-२-३५ __ इस संसारपरिभ्रमणका कारण क्या? राग, द्वेष और मोह । जीव इतना इनके वशीभूत हो गया है कि अपना स्वरूप ही भूल गया है। अभी भी वह मामा, काका, भाई इत्यादि मानता रहता है और इस जीवनको ही महत्त्व दे रहा है। पर ऐसे तो कई भव किये और दुःख पाया, अतः इससे छूटनेके भाव जागने चाहिये। दृष्टि डालते रागद्वेष होते ही रहते हैं। उसे कैसे रोके ? मैंने खाया, पिया, यह किया, वह किया ऐसा मानता है, पर उसे वहाँसे पीछे हटनेकी आवश्यकता है। आत्माकी समझ प्राप्त करनेके लिये तो इन सबसे निवृत्त होना पड़ेगा, सब छोड़ना पड़ेगा, कुछ मेरा नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा। कर्मके उदयमें मोहादि होते हैं, किंतु उस समय उपयोगको दृढ़ करना चाहिये कि यह मेरा स्वरूप नहीं है। यही पुरुषार्थ करना है। उसके बदले मानो कुछ करनेका ही न हो ऐसे भ्रममें रहता है वह योग्य नहीं है। ता.४-२-३५ जीवको अभी धक्का नहीं लगा है। जीवको जैसी दृढ़ता हुई हो उसके प्रमाणमें बल कर सकता है, अन्यथा उदयकर्म तो किसीको छूटने नहीं देते। उसमें तो अपना बल ही काम लगता है। परमकृपालुदेवके वचन ही जीवको संसारमें धक्का लगा सकते हैं, परन्तु वे लगने चाहिये। विचारमूढ जीव जो अपनी मान्यतानुसार परमार्थ कर रहे हैं, उन्हें ज्ञानीके वचनसे धक्का लगता है और विचार जाग्रत होते हैं। फिर सत्य समझमें आने पर पूर्व (आग्रह)का त्याग कर ज्ञानीका कथन ग्रहण करते हैं। ता. ५-२-३५ एक बार भक्तिके पाठ बोले तो दूसरी बार नहीं बोल सकते? हम तो बोल चुके हैं, ऐसा माननेमें क्या लाभ? यह तो कितनी ही बार बोले तो भी लाभ ही है। खानेका प्रसाद मिले तो दिखायी देता है कि मुझे दिया। पर यहाँ भावना करनेसे जो मिलता है वह बहुत अधिक है, फिर भी दिखायी नहीं देता। सारा जगत धन, पैसा, लेन-देन करता है, पुद्गलकी मायामें बह रहा है। उसमें नहीं बहना चाहिये । ज्ञानीने कहा है कि आत्मा तेरा है, वह अजर, अमर, अविनाशी, सबसे भिन्न है; उसे राग, द्वेष, मोह नहीं है ऐसा निश्चयनयसे मान । तब क्या नहीं मानना? उसे याद नहीं करना ? एकमात्र यही सच है, शेष सब मिथ्या है ऐसा माननेको कहा तो मान लेना चाहिये तथा भूलना नहीं चाहिये। आत्माको बंध या मोक्ष कुछ नहीं है इस निश्चयनयको ज्ञानीने जाना है, अतः उसे मान्य करें और उसके सुखको ही सच्चा मानकर उसे याद करें । देहको अपनी मानता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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