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________________ उपदेशसंग्रह-४ ४१३ अभिमान बहुत दुष्ट है। वह जीवको ज्ञानीसे दूर रखता है। अतः अभिमान छोड़नेका प्रयत्न करें। किसीको अपनेसे छोटा न मानें । मैं अधमाधम हूँ ऐसी समझ रखें । नम्रता, विनय रखें। ता. ९-१-३५ समकिती और मिथ्यात्वीमें कैसा भेद है? मिथ्यात्वी दो, चार, छह उपवास करे, रातमें सोये भी नहीं; फिर भी कर्मबंध ही करता है। समकिती खाये, पिये, भोग भोगे, संसारमें रहे, सोये अथवा पागल या उन्मत्त बन जायें, फिर भी कर्मसे छूटता है, क्योंकि उसका लक्ष्य आत्मामें रहता है। अतः लक्ष्य आत्मामें रखना चहिये। आत्माके सिवाय अन्य कार्यों में शरीरसे और वचनसे प्रवृत्ति करनी चाहिये, परंतु मनसे अर्थात् विचारपूर्वक उसमें आसक्त न होना चाहिये, तो बंध नहीं होता। मोक्षके मार्गमें काँटे-कंकर, खड्डे-खाई, कूए जैसे अनेक विघ्न हैं। उसमें अंधा मनुष्य चले तो बहुत कष्ट होता है, और मार्गमें चल ही नहीं सकता। अथवा स्वच्छंदसे चलने पर अवश्य पतन होता है। परंतु यदि मार्गदर्शक मिल जाय और उसके आधारसे चले तभी सरलतासे आगे बढ़ा जा सकता है, तथा भयके स्थान भी पार हो जाते हैं। इसी प्रकार समकित अर्थात् श्रद्धा हो तो मार्ग स्पष्ट दिखाई देता है और उसमें आगे बढ़ा जा सकता है। अतः मुमुक्षुको समकितकी आवश्यकता है। किसी लखपतिके घर खाता खुलवाया हो तो आवश्यकताके समय रकम मिल सकती है, फिर छूटसे लेनदेन की जा सकती है। परंतु खाता न हो तो कुछ भी नहीं हो सकता। अतः खाता खुलवानेका प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि इसमें हमारा स्वार्थ है। थोड़े रुपये भी वहाँ रखने चाहिये । ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । खुशामद भी करनी पड़े, क्योंकि अपना स्वार्थ है। परंतु बादमें बहुत लाभ होगा। यह शरीर, हाथ-पाँव, वह मैं नहीं। देहमें व्याधि हो, पीड़ा हो, वह मुझे नहीं होती। इसी प्रकार इस भवके सगे-संबंधी मेरे नहीं। मैं इन सबसे भिन्न आत्मा हूँ, ऐसा समझें। यह ज्ञानीकी आज्ञा है। देहको स्वप्नमें भी अपना स्वरूप न माननेका अभ्यास करना चाहिये। मन भी मैं नहीं हूँ। मैं अरूपी चेतन हूँ और मेरा स्वरूप ज्ञानीने जाना है। ता. १०-१-३५ आत्माकी बात कितनी दुर्लभ है? माता या पितासे कभी आत्माकी बात सुनी थी? संसारमें कहीं भी ऐसी बात सुननेको मिलेगी? अतः यह योग महादुर्लभ समझें । इसका माहात्म्य बहुत मानें। पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्तभाव, विनय तथा सदाचार सहित आत्मचिंतन करनेसे ज्ञान पानेकी योग्यता आती है। मुमुक्षु-पाँच इन्द्रियोंसे विरक्त होता है तब सदाचार तो होता ही है। प्रभुश्री-विरक्ति यह बताती है कि क्या नहीं करना और सदाचार यह समझाता है कि क्या करना । जैसे कि सत्संग, भक्ति, शास्त्राध्ययन आदि शुभ प्रवृत्तियोंमें लगना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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