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[४] अभिवंदना
(वसंततिलका) अध्यात्ममूर्ति, सहजात्मपदे निमग्न, बोधि समाधि सुख शाश्वत शांतिमग्न; योगीन्द्र वन्द्य गुरु राज कृपाळुदेव, चाहुं अखंड सहजात्मस्वरूप सेव. १ ज्ञानावतार गुरु आप कृपा-प्रसादे, स्वात्मानुभूति-रसपीयूषना सुस्वादे; जेणे स्वश्रेय परश्रेय अनंत साध्यु, ते शांतमूर्ति लघुराजपदे हुं वंदूं. २
(मालिनी) बहु बहु बहु सेव्यां साधनो मुक्ति काजे, स्व-स्वरूप न पिछाण्युं बंध तो केम भांजे? तुज परम कृपाथी मुक्तिनो मार्ग आजे, सहज सुलभ भासे, धन्य आ योग छाजे. ३ अद्भुत निधि आत्मा आप पोते छतांये, स्वपद प्रति वळे ना दृष्टि स्वच्छंदताये! उपकृति अभिवंदं सद्गुरु धन्य धन्य, नयन अजब आंजी दृष्टि दे जे अनन्य. ४ अद्भुत तुज मुद्रा ध्यानमां मग्न भाळु, प्रशम-रस-सुधानो सिंधु जाणे निहाळ! 'चतुरगति प्रवेशुं ना कदी' ओम धारी, स्वरमण-वर-ध्याने शुं प्रभो वृत्ति ठारी! ५ शमनिधि लघुराजे राजचंद्र-प्रभा शी! जळहळ उलसंती स्वानुभूति दशा शी! स्मरी स्मरी स्मरी स्वामी, वीतरागी अवस्था, नमुं नमुं नमुं भक्ति-भाव आणी प्रशस्ता. ६
(शार्दूलविक्रीडित) जे संसार अपार दुःखदरियो उल्लंघवा इच्छता, आत्मानंद-प्रपूर्ण सिद्धिसुखना आह्लादने झंखता; ते सद्भागी शिवार्थीने शरण जे साचुं दई तारता, वंदुं श्रीमद् राजचंद्र, भवथी संतप्तने ठारता. ७
-श्री रावजीभाई देसाई अर्थ-(१) अध्यात्ममूर्ति, सहजात्मपदमें निमग्न, बोधि-समाधिसुख युक्त और शाश्वत शांतिमग्न, योगींद्रवंद्य ऐसे कृपालुदेव गुरु राजचंद्र! आपकी अखंड सहजात्मस्वरूप सेवा मैं चाहता हूँ। (२) आप ज्ञानावतार गुरुकी कृपासे, स्वात्मानुभूति-रसामृतके रसास्वादसे जिसने अनंत स्वश्रेय प्राप्त किया और दूसरोंका कल्याण किया ऐसे शांतमूर्ति लघुराजस्वामीके चरणों में मैं वंदना करता हूँ। (३) मुक्तिके लिये मैंने बहुत-बहुत-बहुत साधन किये, किन्तु स्वस्वरूपको न पिछाना, तो बंध कैसे छूटे? तेरी परमकृपासे आज मुझे मुक्तिमार्ग सहज सुलभ दीख रहा है ऐसा आपका योग धन्य है। (४) आत्मा स्वयं अद्भुत निधि होने पर भी स्वच्छंदताके कारण दृष्टि आत्मस्वरूपकी ओर नहीं मुड़ती। सद्गुरुने अद्भुत नयनांजन करके अनन्य आत्मदृष्टि करायी ऐसे उनके उपकारको धन्य है! धन्य है! (५) तेरी अद्भुत ध्यानमग्न मुद्राको देखकर लगता है मानो प्रशमरससुधाका सिंधु ही हो। आपके आत्मरमणतारूप ध्यानको देखकर मेरी वृत्ति भी शांत हो जाती है और ऐसा निर्णय होता है कि अब मैं चतुर्गतिमें भ्रमण नहीं करूँगा। (६) शमनिधि लघुराजस्वामीने राजचंद्रकी कृपासे स्वानुभूति दशा जलहल ज्योतिस्वरूप प्राप्त की, उस वीतरागी अवस्थाको बारबार स्मरणकर प्रशस्त भक्तिभावपूर्वक वारंवार नमन करता हैं। (७) जो अपार संसाररूप दुखसमुद्रको लाँघना चाहते हैं और आत्मानंद पूर्ण सिद्धिसुखके आह्लादकी जो झंखना करते हैं उन सद्भागी मोक्षेच्छुकको जो सच्ची शरण देकर तारते हैं और भवसे संतप्तको शीतल करते हैं ऐसे श्रीमद् राजचंद्रको मैं वंदना करता हूँ।
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