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________________ [३५] कि, “यह 'ज्ञानार्णव' ग्रंथ जब तक श्री देवकरणजी परिपूर्ण पढ़ न लें तब तक विहारमें तुम उठाओगे।" फिर मुनि देवकरणजीको ‘ज्ञानार्णव' पढ़नेकी प्रेरणा की और वह ग्रंथ उन्हें बहोराया (प्रदान किया)। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' नामक ग्रंथ श्री लल्लजीको बहोराया और उसे परिपूर्ण पढ़ने, स्वाध्याय करनेका निर्देश दिया तथा श्री मोहनलालजीको वह ग्रंथ उठानेकी आज्ञा दी। श्रीमद्जीने श्री लल्लजीसे कहा, "मुनि, 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा'के रचयिता कुमार ब्रह्मचारी हैं। उन्होंने इस ग्रंथमें अपूर्व वैराग्यका जो निरूपण किया है वैसी अन्तरदशा और वैसी उत्कृष्ट भावना उन महात्माकी रहती थी। निवृत्तिस्थानपर इसपर बहुत विचार कीजियेगा।" श्री देवकरणजी स्वामीको भी कहा, “आप भी यह ग्रंथ बहुत पढ़ियेगा, विचारियेगा। दोनों ग्रंथ परस्पर अदलबदलकर पढ़ियेगा और विचारियेगा।" श्री देवकरणजीने श्रीमद्जीसे पूछा, “आपका शरीर एकदम इतना कृश कैसे हो गया ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया, "हम शरीरके विरुद्ध पड़े हैं।" __ श्रीमद्जी अहमदाबादसे वढवाण जानेवाले थे उसकी अगली रातको स्वयं भावसारकी वाडीमें पधारे जहाँ मुनिगण ठहरे हुए थे। स्वयं वढवाण जानेवाले हैं यह बताकर श्री लल्लुजीको उलाहना देते हुए बोले, “आप ही हमारे पीछे पड़े हैं, हम जहाँ जाते हैं वहाँ दौड़े चले आते हैं, हमारा पीछा नहीं छोड़ते।" श्री लल्लुजी स्वामीको भी ऐसा लगा कि अब जब वे स्वयं बुलायेंगे तभी उनके चरणोंमें जाऊँगा, बिना बुलाये अब नहीं जाऊँगा; तब तक उनकी भक्ति करता रहूँगा। दूसरे दिन श्री लल्लजी और श्री देवकरणजीको आगाखानके बंगले पर बुलाकर श्रीमद्जीने अपनी दशाके बारेमें बताया, “अब एकमात्र वीतरागताके सिवाय हमें अन्य कोई वेदन नहीं है। हममें और वीतरागमें भेद न मानियेगा।" श्री लल्लजी और श्री देवकरणजीको वैसी ही श्रद्धा थी किन्तु श्रीमुखसे वह दशा सुनकर परम उल्लास हुआ और जानेसे पहले हमारे समक्ष अपना हृदय खोलकर बात कर दी, ऐसा दोनोंके हृदयमें होनेसे परम संतोष हुआ। श्रीमद्जी अहमदाबादसे वढवाण कॅम्प पधारे। वहाँ कुछ समय रहकर राजकोट पधारे और सं.१९५७की चैत्र वदी ५ मंगलवारको श्रीमद्जीका देहोत्सर्ग हुआ। श्री लल्लजी मुनि काविठा थे वहाँ ये समाचार सेठ झवेरचंद भगवानदासके पतेपर भिजवाये गये। श्री लल्लुजी मुनिको पाँचमका उपवास था, और रात्रि जंगलमें बिताकर दूसरे दिन गाँवमें आये तब सेठ झवेरचंदभाई और उनके भाई रतनचंद दोनों बातें कर रहे थे कि मुनिश्रीका पारणा होनेके बाद समाचार देंगे। यह बात मुनिश्रीने स्पष्ट पूछी और उनके आग्रहसे परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्रके देहोत्सर्गके समाचार उन्होंने कहे, सुनते ही मुनिश्री वापस जंगलमें चले गये और एकान्तमें कायोत्सर्ग, भक्ति आदिमें वह दिन बिताया। चैत्र मासकी उस गर्मीमें पानी तक लिये बिना विरहवेदनामें वह दिन जंगलमें व्यतीत किया। वहाँसे श्री लल्लुजी आदि मुनिगण वसोकी ओर पधारे। अब श्री अंबालालभाईका सत्संग-समागम आश्वासक और उत्साहप्रेरक रहा था। सं.१९५७का चातुर्मास श्री लल्लजी आदिने वसो क्षेत्रमें किया था। श्री मुनिवरोंको खंभात पधारनेके लिए आमंत्रणका पत्र श्री अंबालालभाईने लिखा था वह बहुत विचारणीय है। वे लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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