________________
[३३]
संसारके हितके लिए ममत्वका त्याग कर गच्छ मतादि कल्पनासे रहित होकर संपूर्ण लोकको अमृतमय बनानेके लिए वीतराग भावका सेवन कर रहे हैं!
...जीव जब तक अज्ञानमें, मिथ्यात्वभावमें है तब तक ज्ञानी उसे मिथ्यात्वमें और गच्छमें मानते हैं। मिथ्यात्व जानेके बाद समकित प्राप्त होनेपर उसे उस न्यात, जात, टोली, मत, गच्छमें गिना और तेरहवें गुणस्थानमें पहुँचा या चौदहवेंमें है फिर भी देहधारीके गच्छमें गिना गया; किन्तु शुद्ध, निर्मल, शुद्ध सच्चिदानन्द सिद्ध-स्वरूप प्रगट हुआ तब वह कृतार्थ हुआ, सबसे भिन्न, निर्मल हुआ..." ____ उनके दूसरे पत्रमें भी साहस बढ़ानेवाला प्रेरक लेख है
"विचारवान जीवोंने ऐसा निश्चय किया है कि इस जीवको किसी क्षयोपशमादि कारणसे या पूर्वोपार्जित कर्मोदयसे...मान-अपमानादि कारण प्राप्त होते हैं, अर्थात् शुद्ध आचरणसे, तपोबलसे, शास्त्रज्ञानसे, विचारशक्तिसे, वैराग्यादि कारणोंसे जो कुछ पूज्यता प्राप्त होती है, सत्कारादि मिलते हैं वे सब पूर्वोपार्जित प्रारब्धके उदयसे प्राप्त होते हैं। और जो कुछ असमाधि, क्षुधा, तृषा, अपमान, असत्कार इत्यादि प्राप्त होते हैं वे भी प्रारब्धके उदयसे प्राप्त होते हैं। इसमें इस जीवका कर्तृत्व कुछ भी नहीं है, मात्र पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मका ही वह फल है, ऐसा समझकर विचारवान जीव मानअपमानादि कारणोंमें समदृष्टिसे रहकर आत्मसमाधिमें प्रवृत्ति करते हैं...
भाईश्री वेलसीभाई, मुनिश्रीकी सेवामें पर्युषण पर्व बितानेके लिए कल यहाँसे उस ओर पधारे हैं।"
दो-चार माहमें मुनिसमागम करते रहनेका श्रीमद्जीका मुमुक्षवर्गको निर्देश होनेसे, अनुकूलताके अनुसार मुनियोंके दर्शन-समागमके लिए मुमुक्षु उनके पास जाते रहते थे और पत्रव्यवहारसे भी लाभ लेते थे।
नडियादका चातुर्मास पूर्ण होनेपर श्री लल्लजी आदि वीरमगाम जानेके लिए निकले। श्री देवकरणजी आदि भी वीरमगाम आ गये थे। छहों साधु वीरमगाममें रहकर भक्ति, ज्ञान, विचार आदिमें समय व्यतीत करते थे। शेष काल पूरा होनेपर श्री मोहनलालजी आदि साणंदकी ओर गये। उसी रात श्रीमद्जी वीरमगाम पधारे; और उपाश्रयमें समागम हुआ। श्री आनंदघनजी और श्री देवचंद्रजीके स्तवन बोलनेके बाद श्रीमद्जीने–'वीरजीने चरणे लागुं, वीरपणुं ते मागुं रे' इस महावीर भगवानके स्तवनका अर्थ किया। प्रातःकाल वनमें फिर समागम हुआ। पश्चात् श्रीमद्जी ववाणियाकी ओर पधारे, और श्री लल्लुजी आदि अहमदाबादकी ओर आये।
थोडे ही समयमें श्रीमदजी ववाणियासे अहमदाबाद पधारे और बाहरकी वाडीके पास नगरसेठ प्रेमाभाईके बंगलेपर ठहरे। श्रीमद्जी राजपुरके मंदिरमें जानेवाले थे अतः लल्लजी आदि मुनियोंको भी समाचार भेज दिये थे। मंदिरमें छठे पद्मप्रभुजीका स्तवन स्वयं बोले और मूलनायक पार्श्वनाथ प्रभुकी बगलमें जो भव्य श्वेत प्रतिमा है उसके समीप जाकर श्रीमद्जी बोले, “देवकरणजी देखो, देखो आत्मा!" अतः लल्लजी आदि प्रतिमाके पास आगे आये। श्रीमद्जी बोले, "दिगम्बर आचार्य नग्न रहे इसलिये भगवानको भी दिगम्बर रखा और श्वेताम्बर आचार्योंने वस्त्र धारण किये अतः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org