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________________ २७४ उपदेशामृत लेकर जाते हैं यह अच्छा नहीं लगता। कृपालुदेवने हमें मना किया है कि “जहाँ अनार्य या अभक्ष्य आहार लेनेवाले लोग रहते हों, वहाँ मुनि, आप न रहें, विचरण न करे।" ऐसा कृपालुदेवका कथन याद आता है। इसलिये ऐसे पर्यायवाले क्षेत्रमें रहना न पड़े तो अच्छा। [ 'इष्टोपदेश'का वाचन-गृहस्थ चौथे पाँचवें गुणस्थानमें प्रत्याख्यानावरणीय कषाय सहित होनेसे कर्म ग्रहण तो करते हैं पर बँधे हुएको भोगकर क्षय कर देते हैं।] प्रभुश्री-इसमें क्या समझें? १. मुमुक्षु-लक्ष्य अन्य होनेसे कर्मोंको भोगते हुए भी न भोगने जैसा परिणाम आता है। भोगकर उनसे मुक्त हो जाते हैं। प्रभुश्री-आप क्या समझें? २. मुमुक्षु-पूर्वबद्ध कर्म आयेंगे तो अवश्य ही, पर आसक्तिरहित भोगकर उन्हें जला देते हैं। . प्रभुश्री-बात सच्ची है। आपका कहना भी सच है और इनका कहना भी सच है, पर कोई मर्म रह जाता है। अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि हम तो भोगकर कर्म क्षय कर देते हैं। कुछ वृत्ति उठी उसे पूर्वकर्म समझकर स्त्री आदिका भोग कर फिर मानते हैं कि मैंने कर्म क्षय कर दिया। पर बात ऐसी नहीं है, यह तो मोह है। वृत्तिको रोकना चाहिये, सुखा देना चाहिए । यो संतुष्ट करनेसे कर्मसे छूटा नहीं जाता। वह तो अग्निमें लकड़ी डालने या आगमें घी डालकर बुझाने जैसा प्रयत्न हुआ। ऐसा कभी नहीं होता। सम्यग्दृष्टिकी बात अलग है। किन्तु 'मैं भोगकर छूट रहा हूँ' ऐसा कभी नहीं हो सकता। वृत्तिको रोकना, क्षय करना चाहिये । “वृत्तियोंका क्षय करें, मुनि!" ऐसा हमें कृपालुदेवने कहा था। कुल्हाड़ी लेकर खड़े रहें, जैसे ही वृत्ति जाग्रत हो कि उसके टुकड़े कर दें! जो कर्म आये उसे आने दें, फिर फटकार दें । बेचारे कर्म 'हमारा क्षय करो, हमारा क्षय करो' कहते हुए सिर झुकाकर आ खड़े होंगे। उनको प्रत्येकको कहें-'तुम आओ, मैं देखता हूँ' यों कहकर वीरकी भाँति खड़े रहना चाहिए। उनके समक्ष झुकना नहीं चाहिए। । [वाचनमें 'उपेक्षा' और 'उदासीनता' शब्द आये] प्रभुश्री-दोनोंमें अंतर है। उदासीनता अर्थात् वीतरागता और उपेक्षा अर्थात् त्याग। दोनोंमें यह भेद है कि वीतरागतामें शांति है और त्यागमें शौर्य है। सम्यग्दृष्टि शूरवीर होता है। कर्मका क्षय करनेमें बलकी आवश्यकता है। काल दुषम है। आयुका भरोसा नहीं है। जितना कर लिया उतना कामका है। संसार और संबंधियोंकी मान्यता हो गई है। अंतमें उन्हींको याद करता है और अंतमें उनसे कुछ कह जानेकी इच्छा होती है। यदि अपना सच्चा सुख, अपनी सत्य बात समझमें आयी हो, दृढ़ संबंध बाँधा हो तो वह समयपर उपस्थित क्यों न हो? गलत दृष्टांत है, पर समझने योग्य है। जैसे स्त्रियाँ चूड़ा पहनकर अपने पतिको ही अपना मानती है, वैसे ही उसके नामका ही चूड़ा पहनना चाहिए। यह भव तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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