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________________ उपदेशसंग्रह - २ २७१ कर्म, कर्म और कर्म ! कर्मरूपी मदारी जीवरूपी बंदरको खेल खिला रहा है। अन्य क्या ? जैसा दिखाई दे रहा है वैसा जीव है क्या ? आत्माका स्वरूप क्या है ? ज्ञान, दर्शन, चारित्र - जानना, देखना, स्थिर होना। कृपालुदेवका वचन है, हृदयमें लिख रखा है, “मुनि ! जड़भरत बनकर विचरना ।” पागल बन जाने जैसा है । लोग कहेंगे मुनि खाते हैं, पीते हैं और ऐसा क्यों कर रहे हैं ? अन्यत्र कहीं चैन नहीं पड़ता । जिससे आनंद मिले वह तो है नहीं । उदास, उदास, उदास ! घबराहट, घबराहट और घबराहट रहती है । कुछ नहीं सुहाता । 'सद्धा परम दुल्लहा ।' यह आ जाये तो काम बन जाये। सच्चे पुरुषकी पहचान, श्रद्धा यही सम्यक्त्व । आज या पचास वर्ष बाद भी जो उससे चिपका रहेगा उसका बेड़ा पार है। कर्म किसीको छोड़ता है ? चाहे कितनी ही घबराहट होती हो, किन्तु सत्संग, सत्शास्त्र और ऐसे अन्य कार्योंमें ही लगे रहें तो समय तो ऐसे भी बीतता है और वैसे भी बीतता है; पर एकमें निर्जरा है और दूसरे बंधन है । क्या करें ? कर्म घेर लेते हैं, उसका फल सहन कर रहे हैं। चाहे जो हो पर करना यही है । हमें अपना भी सँभालना चाहिये न ? जब-जब अवकाश होता है, तब-तब इसी साधनमें, स्मरणमें, ध्यानमें प्रवृत्ति करते हैं। सभीको यही करना है । अनंत पुण्यका उदय हो तब सत्पुरुषके मुखसे आत्मा संबंधी बात सुननेको मिलती है । यह अनमोल क्षण बीता जा रहा है। पूरा संसार व्यर्थकी माथापच्चीमें पड़ा है । कालको धिक्कार है ! प्रभुश्री - ( एक विद्यार्थी से ) क्या पढ़ रहे थे, प्रभु ? विद्यार्थी - उपन्यास, इसमें कुछ जानने योग्य नहीं है । 'फॉर्थ रीडर' मेंसे एक बात है । प्रभुश्री - उसमें क्या पढ़ा ? विद्यार्थी - एक व्यक्ति पाँच जहाज लेकर अमेरिका खोजने गया, उसमेंसे चार तूफानमें फँसकर समुद्रमें गुम हो गये । बचा हुआ एक, एक द्वीप पर जाकर वापस लौटते हुए डूब गया । पर उस द्वीपमें एक संस्थान स्थापित किया वहाँ उसका नाम रहा । प्रभुश्री - ( पुस्तक मँगवाकर, हाथमें लेकर ) यह चित्रांकित कुछ पढ़ रहे थे और लेटे हुए थे 1 क्या पढ़ रहे हैं ऐसा पूछनेका विचार हुआ इसलिये पूछा । कहो, इसमें क्या मिला ? शरीर ठीक न होनेसे मनको रोकनेके लिये बेचारेने कहानी पढ़ी, पर उलटा मोहनीय कर्म बढ़ाया। समय तो इसमें भी बीता; पर किसी धार्मिक पुस्तकको पढ़नेमें समय बिताया होता तो शुभ निमित्तसे निर्जराका कारण होता । हमें भी वृद्धावस्थामें वेदनाके कारण जब चैन नहीं पड़ता तब कुछ शुभ निमित्तकी योजना करते हैं । आज नींद नहीं आयी, चैन न पड़ा इसलिये पढ़नेमें यों समय बताया तो कुछ हानि हुई ? यह मात्र आपको या इनको ही नहीं कह रहा हूँ । बुरा न माने, पर सारा संसार ऐसे ही मदहोश होकर पागल हो रहा है और मिथ्यात्वको ही बढ़ा रहा है । तो अब कुछ सोचना चाहिये या नहीं ? अनादिकालसे इन्द्रियोंके विषयोंमें ही फँसकर परिभ्रमण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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