SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ उपदेशामृत देवकरणजी परसे श्रद्धा उठ गयी एवं आपकी निंदा करने लगा। बादमें मैं भावनगरके एक साधुके पास आचारांग सूत्र पढ़नेके लिये रहा। उन्होंने कहा कि हमें समझनेमें इतनी कठिनाई होती है परंतु श्रीमद् राजचंद्र नामक एक पुरुष हैं वे तो इसका अर्थ ऐसे कर देते हैं मानों उन्होंने महावीरके हृदयको ही जान लिया हो । तब मैंने कहा कि ऐसी बात है ? उत्तर मिला कि 'हाँ, ऐसा ही है!' तब मुझे बहुत पश्चात्ताप हुआ कि मैंने देवकरणजी और बड़े महाराजकी उपेक्षा की यह बुरा हुआ। तब उन साधुजीने कहा कि यदि उनकी विराधना की तो मर गये समझना। इससे तुरंत आपसे मिलनेकी इच्छा जाग्रत हुई। मैंने अपने एक परमस्नेही साधुको आगे भेज दिया कि जिससे वह आपकी चर्याको देखें और जैसा लगे वैसा मुझे बतायें। इसके पश्चात् मैं एक-डेढ़ महीने बाद खंभातकी ओर गया। वहाँ तो मार्गमें वही साधु मिल गये कि जो एक मास आपके समागममें रहकर गये थे। उनसे पूछा तो कुछ बोले नहीं, फिर अधिक पूछा तब बताया कि दोनों चौथे कालके पुरुष हैं।' अब तो और भी उत्सुकता बढ़ी। अन्य सब लोग खेडा गाँवमें गये और मैं आपसे मिलनेके लिये, मुझे प्राप्त समाचारके अनुसार उस बंगले पर गया जहाँ आप प्रतिदिन जाते थे। नदीके किनारे ख्रिस्तीका चार मंजिलका बंगला था, जिसकी ऊपरी मंजिल पर आप कुछ बोल रहे थे। आप क्या करते हैं यह मैंने सीढ़ियों पर खड़े खड़े देखा। आप कभी प्रणाम करते, कभी गाथाएँ बोलते और कभी खड़े ही रह जाते । इस सारी चर्या परसे आपकी कुछ अलौकिक दशा दिखायी देती थी! गाँवमें जानेका समय हुआ था अतः नमस्कार करके बैठा और बादमें गाँवमें चला गया। आप वहाँ किसीके साथ कुछ बोलते नहीं थे, केवल साधुके साथ ही कुछ पूछे तो बोलते थे; अन्यथा शांत ही रहते थे। ___बादमें खंभात पधारे तब साथमें चातुर्मास बितानेका लाभ मिला। अंबालालभाईकी वैराग्यदशा और सारी रात आपके साथ उनकी बातें चलती यह देखकर मुझे चमत्कार प्रतीत हुआ, और उसी चातुर्मासमें वहाँ श्रीमद् राजचंद्र-कृपालुदेव भी पधारे और एक सप्ताह तक मुनियोंको बोध दिया। आपने पहले मुँहपत्ती डाल दी थी और फिर विचार किया कि “क्या कहेंगे? पूछे बिना ऐसा किया यह उचित है क्या?" इस विचारसे एक घंटे तक आपकी आँखोंसे आँसुकी धारा बहती रही और कृपालुदेवकी आँखोंसे भी आँसु गिरने लगे! सब स्तब्ध रह गये। फिर परमकृपालुदेवने देवकरणजीसे कहा कि महाराजको मुँहपत्ती दे दो और कहो कि अभी धारण करनेकी आवश्यकता है। तब देवकरणजीने मुझे एक ओर बुलाकर कहा, "जिन्होंने डेढ़ मासका पुत्र और बयासी वर्षकी वृद्ध माँको छोड़कर साधुपना अंगीकार किया, ऐसे व्यक्ति जिस पुरुषको ग्रहण करें तो क्या वे निष्कारण ऐसा करते होंगे? 'जो उनका हो वही मेरा हो', ऐसा आजसे मान ले, इसीमें तेरा कल्याण है।" अतः उसी दिनसे कृपालुदेवके प्रति मेरी आस्था हो गयी। ता. १८-६-२३, शामको सद्गुरु, सद्देव और सद्धर्म ये आत्मारूप ही हैं। स्थितिकरण-किसी स्थिर वस्तुके साथ किसी हिलती हुई वस्तुको बाँध दें तो वह हिलती हुई रुक जाती है, स्तम्भके साथ हिलती हुई वस्तुको बाँधे तो वह स्थिर हो जाती है। इसी प्रकार सत्पुरुषके साथ संबंध-सहवास करनेसे स्थिरता आती है। बोधका प्रभाव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy