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उपदेशामृत प्रभुश्री-मुमुक्षुको तो सत्पुरुषके गुणगान करने चाहिये, पर धर्म तो सत्पुरुषसे ही सुनना चाहिये। कुछ सयानापन किया तो विषभक्षणके समान दुःखदायी है। ___ सत्पुरुषके बोधका असर दिखाई नहीं देता, पर काम करता रहता है और परिणमित होता रहता है। धर्मराज और अन्य पांडव हिमालय पर गये थे। वहाँ कर्मानुसार सब बर्फमें धंस गयेकोई घुटने तक, कोई कमर तक तो कोई गले तक, धर्मराजकी मात्र अंतिम अंगुलि बर्फमें फँसी रही तब उन्हें अपने दोष समझमें आये, फिर आगे गये। यों किसी-न-किसी बहाने जीव अटके हुए हैं। ऐसा अपूर्व जोग मिलना दुर्लभ है।
ता.३१-५-२३ छत पर एक विचार स्फुरित हुआ था वह जानने योग्य है
संतसे, सत्संगसे, प्रत्यक्ष पुरुषकी वाणीसे और प्रत्यक्ष पुरुषसे जिसे श्रद्धा हुई है, उसकी आज्ञानुसार चलनेवाला ज्ञातपुत्र (ज्ञानीका पुत्र) है । ये सब समकित प्राप्तिके साधन हैं।
इससे आत्मधर्मका पोषण होता है। इसमें किसीको कुछ शंका हो तो कहो।
मुमुक्षु-प्रत्यक्ष पुरुष और उनकी वाणी तो समझमें आती है, पर संत और सत्संग, इसमें संत अर्थात् आत्माको प्राप्त न किया हो वे या कौन? ।
प्रभुश्री सद्गुरु, संत और परमात्मामें भिन्नभाव नहीं है, सभी आत्मा हैं।
ता.३१-५-२३ मुनि मोहनलालजी-(मुमुक्षुसे) तुमने समाधि और बोधिके संबंधमें विचार किया? मुमुक्षु-प्रभुश्रीके चरणकमलके योगसे सब हो जायेगा। इनकी कृपासे सब काम सुधर जाते
हैं
प्रभुश्री-(एक वाक्य बोलनेके बाद मोहनलालजीसे) याद रहा? लिख रखने योग्य वचन हैं।
मोहनलालजीको याद न रहा। अतः ना कहकर प्रतीक्षा करने लगे।] प्रभुश्री-पर वह तो चला गया।
[फिर याद कर लिखाने लगे।] स्वयंको स्वयंका बोध होनेसे स्वयंको स्वयंमें समा जाना चाहिये-भावसे और विचारसे, अन्य विकल्पोंको छोड़कर, यह विचार समाधि प्राप्त कराता है।
अप्रतिबंध (प्रतिबंध रहित), असंग (सर्व संगसे रहित), यह शांतिका मार्ग है। पुरुषार्थ, भक्ति कर्तव्य है, स्वच्छंद और प्रमादको छोड़कर । जागृत हो, जागृत हो।
सत्संग-सत्पुरुषके बोध पर विचार करना चाहिये। रत्नचिंतामणिके समान यह मनुष्यभव मिला है, पर जीवको जो लक्ष्यमें लेना चाहिये उसे जाना नहीं है। अनादिसे जो भूल हो रही है, वह क्या है? और कैसे दूर हो? ज्ञानीपुरुषोंने इस पर विचार-विचारकर निश्चय किया है, उसे अवधारण करना चाहिये।
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