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________________ [२५] मुनियो! इस समय ज्ञानी पुरुषके प्रत्यक्ष समागममें प्रमाद करते हो, किन्तु जब ज्ञानी पुरुष नहीं होंगे तब पश्चात्ताप करोगे। पाँच-पाँचसौ कोस तक घूमने पर भी कहीं ज्ञानीका समागम नहीं मिलेगा।" श्रीमद् वसोसे उत्तरसंडा वनक्षेत्रमें एक माह रहकर खेडा पधारे और श्री देवकरणजी मुनिको तेइस दिन तक समागम कराया, जिसका वर्णन करते हुए एक पत्रमें वे श्री लल्लुजीको लिखते हैं___'उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्ययनका बोध होनेपर असद्गुरुकी भ्रांति मिटी, सद्गुरुकी परिपूर्ण प्रतीति हुई। अत्यंत निश्चय हुआ, रोमांच उल्लसित हुए। सत्पुरुषकी प्रतीतिका दृढ़ निश्चय रोम-रोममें उतर गया। वृत्ति आज्ञावश हुई... ___ आपने कहा वैसा ही हुआ-फल पका, रस चखा, शांत हुए। आज्ञा द्वारा सदैव शांत रहेंगे। ऐसी वृत्ति चल रही है मानो सत्पुरुषके चरणमें मोक्ष प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। परमकृपालुदेवने पूर्ण कृपा की है... हम केवल आहारका समय व्यर्थ गँवाते हैं। शेषकाल तो सद्गुरुसेवामें व्यतीत होता है, अतः यह बस है। वहीका वही वाक्य उसी श्रीमुखसे जब श्रवण करते हैं तब नवीन ही लगता है... सर्वोपरि उपदेशमें यही आता है कि शरीरको कृश कर, भीतरके तत्त्वको ढूँढकर, कलेवरको फेंककर चले जाओ। विषय-कषायरूपी चोरको अंदरसे बाहर निकालकर, जला-फूंककर उसका स्नानसूतक कर, क्रियाकर्म निबटाकर शांत हो जाओ, छूट जाओ, प्रशांत हो जाओ; शांति शांति शांति होओ। शीघ्र शीघ्र उद्यम करो। ज्ञानी सद्गुरुके उपदेश-वचन सुनकर एक वचन भी पूर्ण प्रेमसे ग्रहण करें, एक भी सद्गुरु वचनका पूर्ण प्रेमसे आराधन करें तो वह आराधन ही मोक्ष है, मोक्ष बतानेवाला है।" चातुर्मास पूरा होनेपर सभी सातों मुनि नडियादमें एकत्रित हुए। वहाँ लगभग डेढ माह तक अल्प आहार, अल्प निद्रा आदि नियमोंका पालन कर दिनका अधिकांश समय पुस्तक वाचन, मनन, भक्ति, ध्यान आदिमें बिताते । खेडा तथा वसोमें श्रीमद्जीका समागम-बोध हुआ था उसका विवेचन स्मरण करके परस्पर विनिमय (विचारोंका आदान-प्रदान) करते थे। __नडियादसे श्री देवकरणजी आदि अहमदाबादकी ओर विहार करनेवाले थे और श्री लल्लजी आदि खंभातकी ओर पधारनेवाले थे। इतनेमें समाचार मिले कि श्रीमद्जी निवृत्तिके लिये आज मुंबईसे ईडर पधारे हैं। अतः श्री लल्लजीने खंभातकी ओर जाना छोड़कर ईडरकी ओर विहार किया, क्योंकि वसोमें बहुत लोगोंसे परिचय होनेसे उपदेशका बराबर लाभ नहीं मिल सका था, जिससे उनके मनमें खेद रहता था। श्री देवकरणजीने श्री लल्लजीसे कहा, "हमें भी उपदेशका लाभ लेना है। बहुत दिन उपदेश दिया है। आपको आत्महित करना है तो क्या हमें नहीं करना है?" ऐसा कहकर, उनका स्वास्थ्य नरम होनेपर भी धीरे-धीरे वे भी ईडरकी ओर विहार करने लगे। श्री लल्लजी, श्री मोहनलालजी और श्री नरसिंहरख ये तीनों शीघ्रतासे विहार कर जल्दी ईडर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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