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उपदेशसंग्रह-१
१९१ है, वहाँ है। वही कर्तव्य है। ऐसा संयोग कहाँसे मिलेगा? नहीं मिलेगा। अतः चेतिये । आत्मा न हो तो कौन सुनेगा? सब मुर्दे कहलायेंगे। वस्तु दो हैं : जड़ और चेतन। चेतन जड़ नहीं बन सकता और जड़ चेतन नहीं बन सकता । 'सुना पर गुना नहीं।' 'आत्मा, आत्मा' कहता है, पर जाना नहीं तो दर्शन तो कहाँसे होंगे? एक बोध सुने तो काम बन जाये । कौन सुनता है? आत्मा। एक अपूर्व दृढ़ करने जैसा क्या है? विश्वास नहीं है, प्रतीति नहीं है। कोई वस्तु भीत पर लगाता है तो एक तो उखड़ जाती है और एक चिपक जाती है। अतः ऐसी जो एक पकड़ है वह क्या है? अभी कह डालेंगे कि मुझे कण्ठस्थ है, मैं जानता हूँ। हो गया! जाने दे! तुझे पता नहीं है। अवसर आया है। ज्ञानीपुरुषोंने दया और करुणा की है। वह क्या है? 'छह पदका पत्र' । 'आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्षका उपाय है।' अपूर्व बात पढ़ गया, पर वह है क्या? इसका पता नहीं है। बच्चेके हाथ चिंतामणि लग गया, पर उसे पता नहीं है। अतः चेत जा। अवसर आया है। चिंतामणि है। छह पदसे क्या होता है? यदि उसे प्रतिदिन पढ़े, सुने तो उसकी अच्छी गति होती है, देवगति होती है। अन्य सुख कुछ भी नहीं है। पर मनुष्यभव दुर्लभ है। उसमें सम्यक्त्व-प्राप्तिका अवसर है, यह चेतावनी है। कोई वस्तु चूल्हे पर चढ़ाई हो और उसका ध्यान न रखें, सँभाले नहीं तो वह जल जाती है और खानेको नहीं मिलती। वैसे ही इस भवमें पत्रका वाचन, मनन, स्मरण कर्तव्य है। मात्र पाव घंटा लगता है । क्या वह भी नहीं हो सकता? व्याधिके समय न हो सके, पर सुख-शातामें तो हो सकता है न? 'यह तो कई बार कह चुके हैं और कहते आये हैं'-ऐसा करनेसे इसमें बहुत भूल होती है।
___ "उस पत्रमें आप लिखते हैं कि किसी भी मार्गसे आध्यात्मिक ज्ञानका संपादन करना चाहिये, यह ज्ञानियोंका उपदेश है, यह वचन मुझे भी मान्य है।"
किसीने बात नहीं की। दिखाया भी नहीं, पर निश्चित है, अवश्य है। लाखों रुपये देंगे तो भी मुर्दा बोलेगा? जड़ बोलेगा? यह क्या है? है, भान नहीं हैं। यही कहना है। अलौकिक बात कही जाती है। 'प्रतिदिन वहीका वही कहते हैं। ऐसा लगे, पर एक है तो दूसरा क्या कहें ? जाने दे अब,
और इसका लक्ष्य ले। जिसमें सभी आगम समाये हुए हैं, वह क्या वस्तु है? आत्मसिद्धिजी। विचारकी बहुत कमी है। इस पर विचार नहीं किया। 'जो जाने सो ही अनुभव करते हैं।' दूसरोंको पता नहीं है। हीरेका मूल्य तो जौहरी जानता है, दूजा नहीं जान सकता। अतः कर्तव्य है। बात भेदीकी और ज्ञानीकी है, दूसरेकी नहीं। पकड़ करने जैसी है।
ता. २२-११-३५, सायंकाल 'उपदेशछाया' अंक ११में से वाचन
“शरीर ठीक रहे, यह भी एक तरहकी समाधि है। मन ठीक रहे यह भी एक तरहकी समाधि है। सहजसमाधि अर्थात् बाह्य कारणोंके बिनाकी समाधि । उससे प्रमाद आदिका नाश होता है । जिसे यह समाधि रहती है, उसे पुत्रमरण आदिसे भी असमाधि नहीं होती, और उसे कोई लाख रुपये दे तो आनंद नहीं होता, अथवा कोई छीन ले तो खेद नहीं होता । जिसे साता-असाता दोनों समान है उसे सहजसमाधि कहा है। समकितदृष्टिको अल्प हर्ष, अल्प शोक कभी हो जाये परंतु फिर वह शांत हो जाता है, अंगका हर्ष नहीं रहता; ज्यों ही उसे खेद होता है त्यों ही वह उसे पीछे खींच लेता है। वह सोचता है कि ऐसा होना योग्य नहीं, और आत्माकी निंदा करता है। हर्ष शोक
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