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________________ उपदेश संग्रह - १ १६३ इससे छूटना है और आत्माका मोक्ष करना है । इस जीवको मुक्त होना है । अब मुझे बंधन न हो ! 1 “जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग ।” जागृत होनेकी आवश्यकता है । महापुरुषोंको आलोचना करते हुए केवलज्ञान हुआ । छोड़े बिना छुटकारा नहीं है, पर सुने तब न ? सबको कहते हैं कि छोड़ना है । यह सब बंधन, जाल नाशवान भयंकर है। मारे जाओगे। चेतो, चेतो । अन्य सब जाने दो । विघ्न करते हैं वे सब कर्म हैं । सब दुःख, दुःख और दुःख हैं । 1 यह सब भेदज्ञानवाला बोलता है । चक्रवर्तीका पुण्य सबसे अधिक होता है, फिर भी उसमें कुछ नहीं, उसमेंसे मात्र एक आत्मा निकला । जो राज्यके मोहमें फँसे रहे, वे नरकमें गये । पैसाटका काम नहीं आयेगा । जीवके पास मात्र भाव है । " एगोहं नत्थि मे कोइ, नाहमण्णस्स कस्सई । एवं अदीणमणसो अप्पाणमणुसासइ ॥ एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिराभावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ( संथारा पोरिसी) वस्तु अपनी ही बतायी है । * संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसिरे ॥ (मूलाचार ४९ ) ४ अरिहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं इअ सम्मत्तं मए गहिअं ॥ भारी बात की ! यह प्राप्त करनेके लिये बात की। इस मार्गसे चले जाना। मन, वचन, कायासे जो बंध किया है उस सबका त्याग करता हूँ । एक आत्माको ही मानता हूँ । ता.१५-११-३५, शामको खेद रहता है। इस जीवको बोधकी कमी है। श्रद्धा हो और पकड़ हो तो काम बनता है । जिसे मिला है उसे सामान्य हो गया है ! माने, श्रद्धा करे और पकड़ रखे तो मनुष्यभवका बेड़ा पार हो जाये । इस जीवको ऐसा अवसर चूकना नहीं चाहिये। समागम बड़ी वस्तु है । सत्समागम करना चाहिये। कुछ बोध न हो, सुने भी नहीं, तब भी काम हो जाय। कोई ऐसा कहे कि यह तो प्रशंसा कर रहा है । पर नहीं, सच कह रहा हूँ । काम होता है। यह मार्ग ऐसा है कि जन्म-मरण छुड़ाकर समकित प्राप्त कराता है। अन्यत्र संसारमें, मायामें समय खोये; पर सब धूल है ! एक धर्म सार है । एक श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति आनी चाहिये, पर सुने तब आये न? पास नाशके एक वणिकने कृपालुदेवको भोजन कराया था । वह जीव कोरा रह १. मैं एक हूँ। मेरा कोई नहीं । मैं अन्य किसीका नहीं । इस प्रकार अदीन मनवाला होकर मैं अपने आपको शिक्षा देता हूँ । २. एक ज्ञानदर्शनवाला शाश्वत आत्मा ही मेरा है, शेष सभी संयोगजन्य विनाशी पदार्थ मुझसे भिन्न हैं । ३. इस जीवको परद्रव्यके संयोगसे दुःखपरंपरा प्राप्त हुई है। अतः मन, वचन, कायासे सर्व संयोगसंबंध मैं छोड़ता हूँ । ४. जीवनपर्यंत अरिहंत मेरे देव हैं, सच्चे साधु मेरे गुरु हैं और केवली प्ररूपित तत्त्व धर्म हैं। इस प्रकार मैंने सम्यक्त्वको ग्रहण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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